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बुधवार, 25 दिसंबर 2013

जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है

जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है 
बस लकीर का फ़क़ीर बनना ही मुझे आता है 
बदलाव की बयार भी मुझको चाहिए 
जादू की मानो कोई छड़ी होनी चाहिए 
जो घुमाते ही अलादीन के चिराग सी 
सारे मसले हल करनी चाहिए 
मगर सब्र की कोई ईमारत ना मैं गढ़ना चाहता हूँ 
बस मुँह से निकली बात ही पूरी करना चाहता हूँ 
खुद को आम बताता जाता हूँ 
मगर खास की श्रेणी में आना चाहता हूँ 
आम -ओ- खास की जद्दोजहद से 
ना बाहर आना चाहता हूँ 
जो है जैसा है की आदत से न उबरना चाहता हूँ 
यही मेरी कमजोरी है 
जिसका फायदा भ्रष्ट तंत्र उठाता जाता है 
और मैं आम आदमी यूं ही 
सब्जबागों में पिसा जाता हूँ 
साठ साल से खुद को छलवाने की जो आदत पड़ी 
उससे ना उबर पाता हूँ 
मगर किसी दूजे को छह साल भी 
ना दे पाता हूँ 
जो मेरे लिए लड़ने को तैयार है 
जो मेरे लिए सब करने को तैयार है 
उसे ही साथ की जमीन ना दे पाता हूँ 
फिर क्यों मैं बार बार चिल्लाता हूँ 
फिर क्यों मैं बार बार घबराता हूँ 
फिर क्यों मैं बार बार दोषारोपण करता हूँ 
जब आम होते हुए भी आम का साथ ना देता हूँ 
नयी परिपाटी को ना जन्मने देता हूँ 
ये कैसा आम आदमी का आम आदमी से नाता है 
जो आम को आम बने रहने के काम ना आता है 

इसीलिए सोचता हूँ 
जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है 
बस लकीर का फ़क़ीर बनना ही मुझे आता है

7 टिप्‍पणियां:

  1. वक्त ही बतायेगा इन सवालों के जवाब...

    जवाब देंहटाएं
  2. लिजलिजा नाता ??
    ऐसा क्यों कह रहे !

    भाव प्रवण रचना !!

    जवाब देंहटाएं
  3. जब आम आदमी भीतर मुड़ता है , सार्थक परिणाम मिलते हैं।

    जवाब देंहटाएं

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