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शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

यूँ भी हर किसी के ख्वाबगाह युगों तक सुलगते नहीं रहते


एक ख्वाबगाह से हकीकत तक का सफ़र
फिर किसी ख्वाबगाह के 
मोड पर आकर रुक गया 
ज्यों लम्हा गिरा किसी तबस्सुम पर 
और लफ़्ज़ कोई लरज़ गया 
ये आने जाने के सफ़र मे 
युग देखो बदल गया
क्या आज भी तुम्हारे सिरहाने पर 
धूप दस्तक देती है
क्या आज भी ओस की पहली बूँद 
तुम्हारे रुखसार पर गिरती है
क्या आज भी दिनकर 
तुम्हारे दीदार के बाद ही सफ़र शुरु करता है
देखो ना …………
मै तो कैद हूँ तुम्हारी ख्वाबगाह मे
बताना तो तुम्हे ही पडेगा ………
बदलते मौसम के मिज़ाज़ को
अरे रे रे ..........ये क्या 
तुम तो अभी तक मोड़ मुड़े ही नहीं 
तो क्या युग परिवर्तन के साथ
तुम्हारे असीम निस्सीम प्रेम की 
धारा ने भी प्रवाह बदला है 
या प्रेम का बुलबुला उसी मोड़ पर 
लम्हे के हाथों कैद हुआ खड़ा है 
देखा कैद करने का हश्र ..........
ना सिर्फ कैदी बल्कि करने वाला भी 
स्वयं कैद हो जाता है निगेहबानी करते करते 
बताओ अब ............
क्या कभी जी पाए एक भी लम्हा मेरे बिन 
जब तुम्हारी ख्वाबगाह का आतिथ्य 
मैंने स्वीकार कर ही लिया था
तो फिर क्या जरूरत थी तुम्हें रुकने की
मोड़ से ना मुड़ने की
क्या जरूरत थी लम्हों को कैद करने की
यहाँ तो देखो वक्त ने सीढियां चढ़ी ही नहीं
और तुमने भी वक्त के केशों को उलझा दिया
ना खुद की कोई सुबह हुई
ना मेरी कोई शाम हुई
ये ख्वाबगाह  के सफ़र से 
ख्वाबगाह के मोड़ तक ही
उम्र तमाम हुई .............
भूले बिसरे लम्हे आज भी
आसमाँ के आँचल में बिखरे पड़े हैं
हिम्मत हो तो कभी
कोई तारा तोड़ कर देखना ..............
शायद किसी रूह को पनाह मिल जाए 
और उसकी मोहब्बत 
लम्हों की कैद से आज़ाद हो जाये ...............


यूँ भी हर किसी के ख्वाबगाह युगों तक सुलगते नहीं रहते 

शनिवार, 25 जनवरी 2014

साँकल

मैं रोज लगाती हूँ 
एक साँकल अपने 
ख्वाबों की दुनिया पर 
फिर भी जाने कैसे 
किवाड़ खुले मिलते हैं 
बेशक चरमराने की आवाज़ से 
रोज होती हूँ वाकिफ 
और कर देती हूँ बंद 
हर दरवाज़े को 
आखिर दर्द की तहरीरें 
कब तक बदलेंगी करवटें 
बार बार की मौत से 
एक बार की मौत भली 
मगर जाने कौन सी पुरवाई 
किस झिर्री से अंदर दस्तक देती है 
और खुल जाती है सांकल ख्वाबों की दुनिया की धीमे से 
और शुरू हो जाता है एक बार फिर 
आवागमन हवाओं का 
अगले ज़ख्म के लगने तक 
दर्द के अहसासों के बढ़ने तक 

मानव मन जाने किस मिटटी का बना है 
मिटटी में मिलने पर भी ख्वाब बुनना नहीं छोड़ता 
कितने जतन कर लो 
कितनी सांकलें चढ़ा लो 
ख़्वाबों की बया घोंसला बुनना जारी रखती है …… निरंतर कर्मरत रहना कोई इससे सीखे 

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

दो घूँट ज़िन्दगी के

चाहे खुद को मिटा देंगे 
मगर दिल ना किसी का दुखायेंगे 
जब ये वादा खुद से कर लेते हैं 
दो घूँट ज़िन्दगी के पी लेते हैं 

उसके चेहरे की हँसी के लिये 
अपने स्वाभिमान को छोड जब 
दोस्त के लिये झुक लेते हैं 
दो घूँट ज़िन्दगी के पी लेते हैं 

फिर चाहे घुट घुट कर जी लेंगे
अपने उसूलों से भी लड लेंगे
जुबाँ पर ना लाने का जब इरादा कर लेते हैं 
दो घूँट ज़िन्दगी के पी लेते हैं 

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

पीठ पर सदियों को लादे ……अपनी माटी पर

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका अपनी माटी के जनवरी अंक में प्रकाशित मेरी  कवितायें 




पीठ पर सदियों को लादे 
आखिर कितना चल सकते हो 
झुकना लाज़िमी है एक दिन 
तो बोझ थोड़ा कम क्यों नहीं कर लेते 
या हमेशा के लिए उतार क्यों नहीं देते 
और रख लो एक सलीब 
आने वाले कल की 
पीठ की दु:खती रगों को 
कुछ तो सुकून मिलेगा 

आगे ऊपर दिये गये लिंक पर पढिये ।

बुधवार, 15 जनवरी 2014

एक नयी शुरुआत के लिए




ये नया साल नयी खुशियाँ लेकर आया बिटिया का आज जन्मदिन है और उसको उसकी किस्मत ने कहूँ या ईश्वर ने जन्मदिन का तोहफ़ा एक हफ़्ते पहले ही दे दिया जब उसकी जाब बैंक आफ़ इंडिया में लगने की सूचना मिली जिसके लिये मेरी बेटी ने बेहद धैर्य रखा जिसका ये सुखद परिणाम निकला , उसके धैर्य की पूरी परीक्षा उसने दी और उसमें सफ़ल भी हुयी ………आज सबके साथ ये खुशी साझा कर रही हूँ 


एक नये साल के साथ एक नयी शुरुआत के लिए :

ज़िन्दगी दस्तक दे रही है 
बिटिया तुझसे कुछ कह रही है 

नयी बुलंदियां आवाज़ दे रही हैं 
नयी कसौटियाँ भी साथ खड़ी हैं 
ये उत्साह उमंग संग चुनौतीपूर्ण घडी है 
जिस पर तुझे चलना है 
और हिम्मत का एक दीया 
हर मोड़ पर रखना है 
सफलताओं का स्वागत करना है 
पर उन्हें सर पर न चढ़ने देना है 
असफलताओं से सीखना है 
और आगे बढ़ते चलना है 
यही जीवन को दिशा देगा 
तुझे हर संकट से लड़ने का हौसला देगा 
बस अब ना कहीं रुकना है 
मेहनत ,लगन और सच्चाई की राह पर 
आगे ही बढ़ते रहना है 
बस आगे ही बढ़ते रहना है 
खुद को न कभी कमज़ोर समझना 
बस हौसले की बाती जलाये रखना 
राहें खुद रौशन हो जाएँगी 
तेरी पहचान बन जाएँगी 
जब जब तू मुस्कायेगी 
ज़िन्दगी से आँख मिलाएगी 
हजार राहें खुल जाएँगी 
तेरे संयम और हौसले के आगे तो 
किस्मत की रेखाएं भी बदल जाएंगी 
बस इतना याद रखना 

ज़िन्दगी दस्तक दे रही है 
बिटिया तुझसे कुछ कह रही है 

जन्मदिन की असीम शुभकामनायें 
सारे जहान की खुशियाँ तेरी झोली में समाएँ 
एक माँ का बस यही है प्यार , दुलार और आशीर्वाद

रविवार, 12 जनवरी 2014

कौन है औरत?

एक प्रश्न : कौन है औरत महज घर परिवार के लिए बलिदान देकर उफ़ न करने वाली और सारे जहाँ के दोष जिसके सिर मढ़ दिए जाएँ फिर भी वो चुप रहे क्या यही है औरत या यदि वो सच को सच कह दे तो हो जाती है बदचलन औरत और हो जाते हैं उसकी उम्र भर की तपस्या के सारे महल धराशायी ? एक सोच से आज भी लड़ रही है औरत मगर उत्तर आज भी काल के गर्भ में दफ़न हैं क्योंकि आज कितना भी समाज प्रगतिशील हो गया है फिर भी यही विडंबना है हमारे समाज की सोच की वो  आज भी पुरातन है , आज भी औरत को महज वस्तु ही समझती है इंसान नहीं , एक ऐसा इंसान जिसे सबके बराबर मान सम्मान और स्वाभिमान की जरूरत होती है ………… काहे के रिश्ते मन बहलाव के खिलौने भर हैं , समाज में रहने के साधन भर क्योंकि असलियत में तो सबसे कमज़ोर कडी होते हैं एक ठेस और सारे रेत के महल धराशायी , एक ठोकर में अर्श से फ़र्श पर आखिरी साँस लेते दिखते हैं क्या ये रिश्ते होते हैं ? क्या इन्हें ही रिश्ते कहा जाता है जहाँ सिर्फ़ स्वार्थ ही स्वार्थ भरा होता है , सिर्फ़ अपनी मैं को ही स्थान दिया जाता है दूसरे के स्वाभिमान को भी कुचल कर …… क्योंकि स्त्री है वो मानो स्त्री होकर गुनाह किया हो , जिन्हें जन्म दिया , तालीम दी , साथ जीये हर सुख दुख में उनके लिये भी महज एक औरत जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं तो इसे क्या कहेंगे , एक धोखा , एक ढकोसला भर ना ……… कहना आसान है कैसी औरत है ये मगर औरत बनना बहुत मुश्किल खुद को नकारती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत , खुद को मारती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत , खुद से लडती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत और यदि वो ही औरत गर गलती से उफ़ कर दे और अपना सच कह दे  तो कहलाने लगती है बदचलन , बेगैरत , बेहया औरत और हो जाती है उसकी सम्पूर्ण तपस्या धूमिल , उम्र भर का स्नेह , वात्सल्य ,प्रेम हो जाता है चकनाचूर ……… जानते हो क्यों क्योंकि कहीं ना कहीं भावनात्मक स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती है औरत , वक्त के मुताबिक नहीं ढल पाती है औरत , सबसे बडी बात प्रैक्टिकल नही बन पाती है औरत और उन संस्कारों को नही बीज पाती है आने वाली पीढी मे औरत ……… त्याग, तपस्या और वात्सल्य के आवरण से निकलने पर ही औरत लिख सकेगी एक नया औरतनामा और तभी सुधरेगी उसकी स्थिति और समाज की मानसिकता नहीं तो आज भी आधुनिकता के नकाब के पीछे वो ही पुरातन मानसिकता अपना दखल कायम रखेगी और औरत प्रश्नचिन्ह ही रहेगी जब तक ना दोयम दर्जे से खुद को मुक्त करेगी क्योंकि रिश्ते निभाना महज उसी की थाती नहीं ये उसे समझना होगा और रिश्ते की डोर को दोनो तरफ़ से पकडने पर ही दोनो छोर सुरक्षित रहते हैं । बदलाव के लिए एक क्रांति खुद से करनी पड़ेगी तभी उसकी स्थिति बदलेगी वरना तो हलके में ली जाती रही है और ली जाती रहेगी और घुट घुट कर औरत यूं ही जीती रहेगी। 
"कौन है औरत "इस प्रश्न का उत्तर अब उसे खुद खोजना होगा महज सामाजिक रिश्तों की बेड़ियों में जकड़ी एक कठपुतली भर या भावनाओं और स्वाभिमान से लबरेज एक आत्मबल। 

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

काश ! दिल की आवाज़ होती तो

वो कहते हैं 
दिल की आवाज़ लगती है 
जो कलम स्याही उगलती है 
और नक्स छोड़ जाती है 
पिछले पाँव के आँगन में 

काश ! दिल की आवाज़ होती तो 
किसी सरगम की 
किसी गीत की 
किसी संगीत की न जरूरत होती 

और बस हम गुदवा लेते निशान 
कुछ वक्त के दरीचों पर 
जो दिल की गर कोई आवाज़ होती 
तो वक्त के दरिया में न बह रही होती 

और हम किनारे खड़े अकेली कश्ती को यूँ न ताक रहे होते 

काश ! दिल की आवाज़ होती तो 
समंदर में ज्वार ना यूँ उठे होते ........

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

क्योंकि मोहब्बत के तर्पण नहीं हुआ करते

ए मोहब्बत 
तुझसे हर जन्म मिलना है 
बिछडना है 
मगर चक्र यूँ ही चलना है 

ए मोहब्बत 
हर बार खोज करना है 
अधूरा रहना है 
मगर मिलकर भी ना मिलना है 

ए मोहब्बत 
हर बार इकरार से इंकार तक सिमटना है 
बहकना है 
मगर इंतज़ार के सिलसिलों को यूँ ही चलना है 

जानती है क्यों 
क्योंकि 
नियति की दुल्हनों के चेहरों से घूँघट नहीं उठा करते 
क्योंकि 
प्रेम की प्यास के अंतिम छोर नहीं हुआ करते 
क्योंकि 
मोहब्बत के तर्पण नहीं हुआ करते 
इसलिये अधूरा रहना ही नियति है तुम्हारी ………