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रविवार, 12 जनवरी 2014

कौन है औरत?

एक प्रश्न : कौन है औरत महज घर परिवार के लिए बलिदान देकर उफ़ न करने वाली और सारे जहाँ के दोष जिसके सिर मढ़ दिए जाएँ फिर भी वो चुप रहे क्या यही है औरत या यदि वो सच को सच कह दे तो हो जाती है बदचलन औरत और हो जाते हैं उसकी उम्र भर की तपस्या के सारे महल धराशायी ? एक सोच से आज भी लड़ रही है औरत मगर उत्तर आज भी काल के गर्भ में दफ़न हैं क्योंकि आज कितना भी समाज प्रगतिशील हो गया है फिर भी यही विडंबना है हमारे समाज की सोच की वो  आज भी पुरातन है , आज भी औरत को महज वस्तु ही समझती है इंसान नहीं , एक ऐसा इंसान जिसे सबके बराबर मान सम्मान और स्वाभिमान की जरूरत होती है ………… काहे के रिश्ते मन बहलाव के खिलौने भर हैं , समाज में रहने के साधन भर क्योंकि असलियत में तो सबसे कमज़ोर कडी होते हैं एक ठेस और सारे रेत के महल धराशायी , एक ठोकर में अर्श से फ़र्श पर आखिरी साँस लेते दिखते हैं क्या ये रिश्ते होते हैं ? क्या इन्हें ही रिश्ते कहा जाता है जहाँ सिर्फ़ स्वार्थ ही स्वार्थ भरा होता है , सिर्फ़ अपनी मैं को ही स्थान दिया जाता है दूसरे के स्वाभिमान को भी कुचल कर …… क्योंकि स्त्री है वो मानो स्त्री होकर गुनाह किया हो , जिन्हें जन्म दिया , तालीम दी , साथ जीये हर सुख दुख में उनके लिये भी महज एक औरत जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं तो इसे क्या कहेंगे , एक धोखा , एक ढकोसला भर ना ……… कहना आसान है कैसी औरत है ये मगर औरत बनना बहुत मुश्किल खुद को नकारती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत , खुद को मारती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत , खुद से लडती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत और यदि वो ही औरत गर गलती से उफ़ कर दे और अपना सच कह दे  तो कहलाने लगती है बदचलन , बेगैरत , बेहया औरत और हो जाती है उसकी सम्पूर्ण तपस्या धूमिल , उम्र भर का स्नेह , वात्सल्य ,प्रेम हो जाता है चकनाचूर ……… जानते हो क्यों क्योंकि कहीं ना कहीं भावनात्मक स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती है औरत , वक्त के मुताबिक नहीं ढल पाती है औरत , सबसे बडी बात प्रैक्टिकल नही बन पाती है औरत और उन संस्कारों को नही बीज पाती है आने वाली पीढी मे औरत ……… त्याग, तपस्या और वात्सल्य के आवरण से निकलने पर ही औरत लिख सकेगी एक नया औरतनामा और तभी सुधरेगी उसकी स्थिति और समाज की मानसिकता नहीं तो आज भी आधुनिकता के नकाब के पीछे वो ही पुरातन मानसिकता अपना दखल कायम रखेगी और औरत प्रश्नचिन्ह ही रहेगी जब तक ना दोयम दर्जे से खुद को मुक्त करेगी क्योंकि रिश्ते निभाना महज उसी की थाती नहीं ये उसे समझना होगा और रिश्ते की डोर को दोनो तरफ़ से पकडने पर ही दोनो छोर सुरक्षित रहते हैं । बदलाव के लिए एक क्रांति खुद से करनी पड़ेगी तभी उसकी स्थिति बदलेगी वरना तो हलके में ली जाती रही है और ली जाती रहेगी और घुट घुट कर औरत यूं ही जीती रहेगी। 
"कौन है औरत "इस प्रश्न का उत्तर अब उसे खुद खोजना होगा महज सामाजिक रिश्तों की बेड़ियों में जकड़ी एक कठपुतली भर या भावनाओं और स्वाभिमान से लबरेज एक आत्मबल। 

8 टिप्‍पणियां:

  1. काश खुद को स्वीकार कर औरत सम्पूर्ण औरत बनती

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  2. sahi vishleshan kiya hai aapne vandna ji .

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  3. कौन है औरत "इस प्रश्न का उत्तर अब उसे खुद खोजना होगा

    aapse sahmat,iska uttar stri hi de sakati hai. koi doosara nahin.
    is uttar ki pratiksha bahuton ko hai, mujhe bhi..... abhar is jwalant prashna ke liye.....

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  4. पुरुष तो है ही दूसरा पर जब औरत ही औरत की दुष्मन बनती है उसे कैसे रोकें। नारियां एकजुट हों तो स्थिति बदलेगी।

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  5. स्त्री को अपने भीतर जाकर खुद से पूछना होगा वह क्या चाहती है..

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  6. समाज बदल गया परन्तु सोच अब भी पुरानी है....क्यों ??? कभी सोचा है आपने ....
    ---क्योंकि स्त्री ने आज भी स्वयं को नहीं बदला है...बच्चों व पुरुष को बदलने का उपक्रम नहीं किया है ....वह स्वयं फैशन, गहने, संपत्ति की अधिकाधिक चाह एवं पुरुष को आकर्षित करने की चाह में कुछ भी करने की --राह पर आज भी है..

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  7. काफी उम्दा प्रस्तुति.....
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (14-01-2014) को "मकर संक्रांति...मंगलवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1492" पर भी रहेगी...!!!
    - मिश्रा राहुल

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  8. काफी उम्दा प्रस्तुति.....
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (14-01-2014) को "मकर संक्रांति...मंगलवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1492" पर भी रहेगी...!!!
    - मिश्रा राहुल

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