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शुक्रवार, 30 मई 2014

वो कोई भी हो सकती है ……



त्याग ममत्व सहनशीलता की मूरत 
तप कर कुंदन बन 
जब पक जाता है उसका रंग 
कृशकाय हो जाती है त्वचा 
चेहरे की सिलवटों में 
उभर आते हैं जब संघर्ष 
आँखों के घेरों में 
दिखने लगता  है 
जीवन के अंधियारे पक्ष का 
जब विराम चिन्ह 
बुदबुदाते होठों की लकीरें 
जब बाँचती हैं 
उम्र की रामायण में दर्ज 
सीता के जीवित दफ़न होने की दास्ताँ 
बेतरतीब पहनी धोती में 
जब ध्यान नहीं जाता पल्लू के सरकने पर 
गठिया के दर्द का कहर भी 
जब नहीं छू पाता अंतर संघर्ष के कहर को भी 
तब वो कोई भी हो सकती है 
किसी की माँ पत्नी बहन या  बेटी 
क्या फर्क पड़ता है  
क्योंकि 
संघर्षों की आंच पर 
जलने पिघलने और नए आकार में 
ढलने के बाद भी जो बचती है 
उस स्त्री का कोई चेहरा नहीं होता 
वो कोई भी हो सकती है ……


फ़ोटो साभार : Vijendra Kriti Oar 

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (31-05-2014) को "पीर पिघलती है" (चर्चा मंच-1629) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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