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गुरुवार, 14 अगस्त 2014

क्या दिखी तुम्हें ?

नेपाल से निकलने वाली पत्रिका ' शब्द संयोजन ' के अक्टूबर २०१५ अंक में प्रकाशित मेरी कविता :






सूख गए हैं स्रोत गोमुख के 
तक्षशिलाओं  मुहानों पर बैठे  हैं दल्ले 
भोगवादी प्रवृत्ति ने उपजाई हैं कंटकाकीर्ण फसलें 
फिर कैसे संभव है 
अंगूर के मौसम में आम उगाना 
विपरीतार्थक शब्दों को समुच्चय में बाँधना 
रक्ताभ मार्गों में नीलाभ आभा बिखेरना 

जब समय के तंतु बिखर चुके हों 
पहाड़ों के दुःख पहाड़ से हो गए हों 
ग्रह नक्षत्रों की युति 
कालसर्प दोष को  इंगित कर रही हो 
ऐसे समय में 
कैसे संभव है 
पहाड़ का सीना चीर 
दूध की नदिया बहाना 
या मौसमों के बदलने से 
मनः स्थिति का बदलना 
जब चूल्हों की जगह 
कहीं पेट की तो 
कहीं शरीर की भूख की 
लपटें पसरी हों 
और सिंक  रही हो 
मानवता की रोटियां जली फुँकी 

हृदय विहीन समय के 
नपुंसक समाज में 
जीने के शाप से शापित 
समाज का कोढ़ है 
 इंसानियत की बेवा का करुण विलाप 

नैराश्य के घनघोर 
अंधियारे में घिरे 
पुकारते पूर्वजों की चीखें 
बंद कानों पर नहीं गिरा करतीं 
सिर्फ टंकारें 
जो तोड़ती हैं 
वो ही सुनाई देती हैं 
एक ऐसे समय में 
जीने को अभिशप्त मानव 
कहाँ से लाये पारसमणि 
जो जिला दे 
मृत आत्माओं की 
संवेदनाओं को 

व्यग्र माँ पुनरुत्थान को 
कातर निगाहों से 
भविष्य की ओर 
ताक रही है .......... क्या दिखी तुम्हें ?

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (16-08-2014) को “आजादी की वर्षगाँठ” (चर्चा अंक-1707) पर भी होगी।
    --
    हमारी स्वतन्त्रता और एकता अक्षुण्ण रहे।
    स्वतन्त्रता दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुंदर भावों को व्यक्त करती रचना :)
    आभार

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  3. प्रेरक, चिंतनशील सामयिक प्रस्तुति के हेतु धन्यवाद

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  4. प्रेरक, चिंतनशील सामयिक प्रस्तुति के हेतु धन्यवाद

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  5. गहरी संवेदनाओं को व्यक्त करती रचना
    बहुत बढ़िया

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  6. इंसानियत की बेवा का करुण विलाप …
    हर तरफ फैले निराशा के बादल के लिए सटीक , सार्थक शब्दों के चयन ने अद्भुत बिम्ब दिए !

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