चाशनी से चिपका कर होठों को
परिचित और अपरिचित के मध्य
खींची रेखा से लगे तुम
अजनबियत का यूँ तारी होना
खिसका गया एक ईंट और
हिल गयी नींव
विश्वास की
अपनत्व की
ये कैसी दुरुहता मध्य पसरी थी
जहाँ न दोस्ती थी न दुश्मनी
न जमीन थी न आस्मां
बस इक हवा बीच में पसरी कर रही थी ध्वस्त दोनों ध्रुवों को
मानो खुश्क समुन्दर पर बाँध बनाना चाहता हो कोई
ज़ुबाँ की तल्खी से बेहतर था मौन का संवाद ....... है न
क्या कहूँ तुम्हें ……… दोस्त , हमदम या अजनबी ?
कुछ रिश्तों का कोई गणित नहीं होता
और हर गणित का कोई रिश्ता हो ही ....... जरूरी तो नहीं
6 टिप्पणियां:
रिश्तों की असलियत को बयाँ करती प्रभावशाली रचना..
खुश्क समंदर पर बांध बनाना चाहता है कोई ....बहुत अच्छे और बहुत गहरे ..दोस्त जी कमाल की पंक्तियां और सोच ..लिखती जाइए अनवरत और बहती जाइए अविरल । शुभकामनाएं आपको
अब अजनबी कहाँ रहा वो ...वो लकीर अब टूट ही चुकी समझो
क्यों की अभी तक हैं
कुछ बातें जहन में..
उस पार की इस पार में :)
शानदार अभिव्यक्ति
बिलकुल सही कहा आपने।
सादर
कुछ रिश्तो का कोई गणित नही होता..........
बहुत गहराई से लिखा है। सूखे समंदर पर बांध.......
sunder prabhaawpurn rachna....!!
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