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मंगलवार, 16 सितंबर 2014

क्या कहूँ तुम्हें

चाशनी से चिपका कर होठों को 
परिचित और अपरिचित के मध्य 
खींची रेखा से लगे तुम 

अजनबियत का यूँ तारी होना 
खिसका गया एक ईंट और 
हिल गयी नींव 
विश्वास की 
अपनत्व की 

ये कैसी दुरुहता मध्य पसरी थी 
जहाँ न दोस्ती थी न दुश्मनी 
न जमीन थी न आस्मां 

बस इक हवा बीच में पसरी कर रही थी ध्वस्त दोनों ध्रुवों को 
मानो खुश्क समुन्दर पर बाँध बनाना चाहता हो कोई 

ज़ुबाँ की तल्खी से बेहतर था मौन का संवाद ....... है न 
क्या कहूँ तुम्हें ……… दोस्त , हमदम या अजनबी ?

कुछ रिश्तों का कोई गणित नहीं होता 
और हर गणित का कोई रिश्ता हो ही .......  जरूरी तो नहीं 

6 टिप्‍पणियां:

  1. रिश्तों की असलियत को बयाँ करती प्रभावशाली रचना..

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  2. खुश्क समंदर पर बांध बनाना चाहता है कोई ....बहुत अच्छे और बहुत गहरे ..दोस्त जी कमाल की पंक्तियां और सोच ..लिखती जाइए अनवरत और बहती जाइए अविरल । शुभकामनाएं आपको

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  3. अब अजनबी कहाँ रहा वो ...वो लकीर अब टूट ही चुकी समझो
    क्यों की अभी तक हैं
    कुछ बातें जहन में..
    उस पार की इस पार में :)

    शानदार अभिव्यक्ति

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  4. कुछ रिश्तो का कोई गणित नही होता..........

    बहुत गहराई से लिखा है। सूखे समंदर पर बांध.......

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