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मंगलवार, 23 सितंबर 2014

ज़िन्दगी के पहले जश्न की तरह

जब शब्दों और विचारों का 
तालमेल टूटने लगे 
भावों पर ग्रहण लगने लगे
और अन्दर तू्फ़ान उठने लगे
भयंकर चक्रवात चल रहा हो
अंधड में खुद का वजूद भी
ना मिल रहा हो 
सिर्फ़ हवाओं का शोर मच रहा हो
सन्नाटे चीख रहे हों
 ज़ुबान पर ताले लगे हों
और रूह का कतरा कतरा खामोश हो 
तब कोई कैसे जीये ……बताना ज़रा 

क्योंकि
एक अरसा हुआ 
जारी है मौन का रुदन………मुझमें मेरे गलते , आखिरी साँस लेते वजूद तक 

कोई तो बताये 
अब तडप के भुने चनों पर 
कौन सी चटनी डालूँ 
जो चटकारा लगा सकूँ ………ज़िन्दगी का आखिरी जश्न मना सकूँ?

क्योंकि सुना है 
मौन का रुदन जब होता है 
बस वहीं सफ़र का अंत होता है 
और मैं मनाना चाहती हूँ आखिरी जश्न को 
ज़िन्दगी के पहले जश्न की तरह 
ज़िन्दगी की पहली सुगबुगाहट की तरह
ज़िन्दगी की पहली उजास की तरह 

क्या दे पाऊँगी मौन के रुदन को उसका मूर्त रूप
क्या लगा पाऊँगी कहकहे अपनी किलकारियों के 
क्या लिख पाऊँगी एक नया ग्रंथ मौन के रुदन पर 
उसका प्रथम और अन्तिम प्रयास बन कर
मौन के रुदन का एक शाहकार बनाकर

भविष्य के गर्त में हैं अभी परछाइयाँ
और मैं खेल रही हूँ गीटियाँ वक्त से 
शायद पकड सकूँ कोई गीटी 
और आकार पा जाये रुदन मौन होने से पहले........

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर...इसी महारुदन से निकलेगा एक महाकाव्य..

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  2. ऐसे वक्त कलम मौन तो रहती है लेकिन जब लिखती है तो आग लिखती है उसकी ही एक झलक है ये कविता.

    पधारिये Rohitas Ghorela: पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी

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  3. bahot kub sunder vichar maja aa gaya padhkar aapko bahot bahot dhanywad.....!!

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  4. शब्दों में विचारों की आग और भावों के रूदन का सुंदर निरूपण .....

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