सोच को पछीटते हुए कहाँ ले जाऊँ
(चित्र साभार : आरती वर्मा इस चित्र ने लिखने को प्रेरित किया )
मैं कहाँ हूँ और कहाँ नहीं
आखिर कब तक खुद से मुखातिब रहूँ
उम्र तो गुजरी चाकरी में
मगर इक सोच हो जाती है काबिज कभी कभी
सबकी ज़िन्दगी में अवकाश होते हैं
और एक मैं हूँ
बिना अवकाशप्राप्त सर्वसुलभ कामगार
उठाने लगी है सिर एक चाहत
चाहिए मुझे भी एक अवकाश
हर जिम्मेदारी और कर्तव्य से
हर अधिकार और व्यवहार से
हर चाहत और नफ़रत से
ताकि जी सकूँ एक बार कुछ वक्त अपने अनुसार
जहाँ न कोई फ़िक्र हो
एक उन्मुक्त पंछी से पंख पसारे उड़ती जाऊँ ,बस उड़ती जाऊँ
क्या संभव होगा कभी ये मेरे लिए
या चिता पर लेटने पर ही होता है एक स्त्री को नसीब पूर्ण अवकाश …… सोच में हूँ !!!
3 टिप्पणियां:
I also think the same way but feel proud
that I got sick and got at least 6 months off and my husband did all the jobs .
it is true .
sunder abhivyakti
badhai
rachana
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