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रविवार, 30 नवंबर 2014

सोच को पछीटते हुए

सोच को पछीटते हुए कहाँ ले जाऊँ 
मैं कहाँ हूँ और कहाँ नहीं 
आखिर कब तक खुद से मुखातिब रहूँ 
उम्र तो गुजरी चाकरी में 
मगर इक सोच हो जाती है काबिज कभी कभी

सबकी ज़िन्दगी में अवकाश होते हैं 
और एक मैं हूँ 
बिना अवकाशप्राप्त सर्वसुलभ कामगार 

उठाने लगी है सिर एक चाहत
चाहिए मुझे भी एक अवकाश 
हर जिम्मेदारी और कर्तव्य से 
हर अधिकार और व्यवहार से 
हर चाहत और नफ़रत से 
ताकि जी सकूँ एक बार कुछ वक्त अपने अनुसार 
जहाँ न कोई फ़िक्र हो
एक उन्मुक्त पंछी से पंख पसारे उड़ती जाऊँ ,बस उड़ती जाऊँ

क्या संभव होगा कभी ये मेरे लिए 
या चिता पर लेटने पर ही होता है एक स्त्री को नसीब पूर्ण अवकाश …… सोच में हूँ !!!


(चित्र साभार : आरती वर्मा इस चित्र ने लिखने को प्रेरित किया )

3 टिप्‍पणियां:

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