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मंगलवार, 10 मार्च 2015

यूं ही

जाने कौन सी खलिश बींधती है मुझे 
कि इक आह सी हर साँस पर निकलती रही 

और मैं अनजान हूँ ऐसा भी नहीं 
फिर भी खुद से पूछने में झिझकती रही 

अंजुमन यूं तो खाली ही रहा अक्सर 
फिर भी उम्र फासलों से गुजरती रही 

हसरतों को लुभाने की बात मत करना 
कि इक बियाबानी दिल में मचलती रही 

अब मुस्कुराने से भला क्या होगा 
जब नज्मों में दिल की लगी सुलगती रही 

अब कौन रखे हिसाब सिसकते ज़ख्मों का 
जब यूँ ही इक सिलवट दिल पर पड़ती रही 

3 टिप्‍पणियां:


  1. बहुत खूब,बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.

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  2. अब कौन रखे हिसाब सिसकते ज़ख्मों का
    जब यूँ ही इक सिलवट दिल पर पड़ती रही
    अच्छी अभिव्यक्ति वंदनाजी

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