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सोमवार, 3 अगस्त 2015

कितनी बेदर्द हूँ मैं ..................

अब दर्द नहीं होता 
होती है तो एक टीस सी बस 
जो बस झकझोरती रहती है 
उथल पुथल मचाये रखती है 
और मैं 
रिश्तों का आकलन भी नहीं करती अब 
जब से जाना है रिश्तों का असमान गणित 
फिर 
दर्द को किस प्यास का पानी पिलाऊँ 
जो 
रोये पीटे चीखे चिंघाड़े 
सुबकियाँ भरे 
तो हो सके अहसास चोट का 

न चोट की फेहरिस्त है अब और न ही ज़ख्मों की
फिर दर्द का हिसाब कौन रखे 

जाने किस समझौते की आड़ में 
मूक हो गयी हैं संवेदनाएं 
लगता है अब 

कितनी बेदर्द हूँ मैं ..................

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेदर्द ज़माने के साथ बेदर्द होना भी अपने तरह की एक मज़बूरी कह सकते हैं
    बहुत बढ़िया ...

    जवाब देंहटाएं
  2. कभी कभी दर्द को महसूस करना ही उससे निज़ात पाना होता है।

    जवाब देंहटाएं

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