पेज

रविवार, 29 नवंबर 2015

लव ब्लॉसम्स हेयर जानां ...........

 
 
प्यार महकता है
मोहब्बत की सौंधी सौंधी महक
इश्क की खुशबू
कुछ भी कहूँ
बात तो एक ही है
बस जरूरत है तो इतनी सी
वो तुम तक पहुँचे

वो ' तुम '
कोई भी हो सकते हो
न मैंने नहीं देखा तुम्हें
नहीं जानती कौन हो
कहाँ हो , कैसे हो
बस महकते हो मुझमे साँसों से
चहकते हो , बहकते हो
और मैं बेबस सी
तुम्हारी अनजानी अनदेखी मोहब्बत में गिरफ्तार
युगों से प्रतीक्षा की दहलीज पर
सजदा किये बैठी हूँ
एक कभी न बुझने वाली चिर परिचित प्यास का घूँट पीकर

जबकि जानती हूँ
तुम नहीं हो कहीं
न यहाँ न कहीं और इस पूरे ब्रह्माण्ड में
सिवाय मेरे अनचीन्हे ख्याल की पुआल पर बैठे एक जोगी की तरह

सदायें बिना पंखों की वो पंछी हैं
जिन्हें उड़ने को न आकाश चाहिए
और न ही धड़कने को दिल
पहुँच ही जाती हैं मंजिल तक

जाने क्यों फिर भी कहने को दिल करता है
मृग की नाभि में कस्तूरी सा
लव ब्लॉसम्स हेयर जानां ...........

रविवार, 22 नवंबर 2015

बस चलन है

जाने कैसी दुनिया कैसे लोग
नकाब पर नकाब पर नकाब डाल 
जी लेते हैं जो
और वो छद्मों को
उँगलियों पर गिनते गिनते बुढा जाते हैं
फिर भी न फितरत समझ पाते हैं
और एक दिन उकता कर
ख़ुदकुशी को निकल जाते हैं
फिर वो ख़ुदकुशी
समाजिक हो राजनीतिक हो या साहित्यिक 

ये लेखक की साहित्यिक मौत नहीं
राजनीतिज्ञ की राजनीतिक मौत नहीं
इंसान की समाजिक मौत नहीं
ये वैसे भी कभी बहस का मुद्दा होता ही नहीं
अति भावुकता का होना और व्यावहारिक होने में कुछ तो फर्क होता ही है

बस चलन है अपने अपने देश का
समझ सकते हो तो रहना जंगल में वर्ना ...

देश निकाले के सबके लिए अपने अपने अर्थ होते हैं


शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

क्या सच में जिए ?

जीने की चाहत में मरना जरूरी था
फिर भी ज़िन्दगी से मिलन अधूरा था

सच ही तो है
जी लिए इक ज़िन्दगी
फिर भी
इक खलिश जब उधेड़ती है मन के धागे
चिंदी चिंदी बिखर जाती है पछुआ के झोंके से

मजबूरी में जीने और इच्छानुसार जीने में कुछ तो फर्क होता है
हाँ , समझौतों के लक्ष्मण झूलों पर झूलते
जब ज़िन्दगी गुजरती है
तब प्रश्न उठना लाजिमी है

वैसे क्या ये सच नहीं है
कि
यहाँ मनचाहा जीवन कभी कोई जीया ही नहीं

सभी अपनी आधी अधूरी चाहतों की
अतृप्त प्यास से जकड़े ही कूच कर गए 
 
खाली बर्तनों की टंकारें खोखली ही हुआ करती हैं  

ऐसे में
क्या सच में जिए ?
प्रश्न मचा देता है हलचल
और हम हो जाते हैं निशब्द ...
 

सोमवार, 16 नवंबर 2015

मौन के दुर्दिन

समय के कांटे हलक में उगकर अक्सर करते रहे लहुलुहान और तकलीफ की दहलीज पर सजदा करना बन गया दिनचर्या . ऐसे में कैसे संभव था शब्दों से जुगलबंदी करना . मौन के पंछियों का डेरा नियमित आवास बन गया फिर भी कुछ था जो कुरेद रहा था तरतीब से बिछे गलीचों को . गलीचों की ऊपरी सुन्दरता ही मापदंड है - ' सब कुछ ठीक है ' का . फिर कैसे संभव था अनकहे को लिपिबद्ध करना या खंगालना .

न , न यहाँ कोई नहीं जो भाषा की जुगाली करे या भावों का तर्पण . एक चुप्पी का कटघरा ही अक्सर संवाद करना चाहता है मगर मेरे पास कोई नहीं जो मेरे मौन से मुझे अवगत कराये .

चुप्पियों को घोंटकर पीने का वक्त है ये . मौन के दुर्दिन हैं ये जहाँ संवाद की हत्या हो गयी है ऐसे में जीत और हार बराबरी से विवश हैं सिर्फ शोक मनाने को ....

रविवार, 8 नवंबर 2015

वैश्या , कुल्टा और छिनाल

शौक़ीन हूँ मैं
तुम्हारे दिए संबोधनों
वैश्या , कुल्टा और छिनाल की

तुम्हारे उद्बोधनों का
जलता कोयला रखकर जीभ पर
बजाते हुए ताली
मुस्कुराती हूँ जब खिलखिलाकर
खुल जाते हैं सारे पत्ते
तुम्हारी तहजीब के
और हो जाते हो तुम
निर्वस्त्र ...

बात न जीत की है न हार की
यहाँ कोई बाजी नहीं लगी
न ही शर्त है बदी
बस
तुम्हारा तमतमाता ध्वस्त चेहरा
गवाह है
तोड़ दी हैं स्त्री ने
तुम्हारी बनायी कुंठित मीनारें


तुम्हारी छटपटाहट
बिलौटे सी जब हुंकारती है
स्त्री हो जाती है आज़ाद
और उठाकर रख देती है एक पाँव
आसमा के सीने पर
छोड़ने को छाप इस बार
बनकर बामन नापने को तीनों लोक
कि
फिर न हो सके
किसी भी युग में
किसी भी काल में
स्त्री फिर से बेबस , मूक , निरीह ...

अंत में
सोचती हूँ बता ही दूं
तुम्हें एक सत्य
कि
तुम्हारे दिए उद्बोधन ही बने हैं नींव
मेरी स्वतंत्रता के ......

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

विडंबना

जिन राहों की कोई मंजिल नहीं होती
वहां पदचिन्ह खोजने से क्या फायदा
ये जानते हुए भी
आस की बुलबुल अक्सर
उन्ही डालों पर फुदकती है
ख्यालों की बंदगी करने लगती है

शायद ऐसा हो जाए
न न ऐसा ही होगा
ऐसा ही होना चाहिए
आस का कोई भी पहलू
एक बार बस करवट बदल ले
उम्मीद के चिराग देह बदलने लगते हैं

जबकि
जानते सभी हैं ये सत्य
सिर्फ ख्यालों और चाहतों की जुगलबंदियों से नहीं बना करते नए राग

अब ये मानव मन की विडंबना नहीं तो और क्या है ?