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रविवार, 22 नवंबर 2015

बस चलन है

जाने कैसी दुनिया कैसे लोग
नकाब पर नकाब पर नकाब डाल 
जी लेते हैं जो
और वो छद्मों को
उँगलियों पर गिनते गिनते बुढा जाते हैं
फिर भी न फितरत समझ पाते हैं
और एक दिन उकता कर
ख़ुदकुशी को निकल जाते हैं
फिर वो ख़ुदकुशी
समाजिक हो राजनीतिक हो या साहित्यिक 

ये लेखक की साहित्यिक मौत नहीं
राजनीतिज्ञ की राजनीतिक मौत नहीं
इंसान की समाजिक मौत नहीं
ये वैसे भी कभी बहस का मुद्दा होता ही नहीं
अति भावुकता का होना और व्यावहारिक होने में कुछ तो फर्क होता ही है

बस चलन है अपने अपने देश का
समझ सकते हो तो रहना जंगल में वर्ना ...

देश निकाले के सबके लिए अपने अपने अर्थ होते हैं


1 टिप्पणी:

अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया