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शनिवार, 30 जुलाई 2016

हंगामा है क्यों बरपा


जाने कितने सच इंसान अपने साथ ही ले जाता है . वो वक्त ही नहीं मिलता उसे या कहो हिम्मत ही नहीं होती उसकी सारे सच कहने की . यदि कह दे तो जाने कितना बड़ा तूफ़ान आ जाए फिर वो रिश्ते हों , राजनीति हो या फिर साहित्य ....

साहित्य के सच कहने वाले अक्सर अलग थलग पड़ जाते हैं , अछूत की सी श्रेणी में आ जाते हैं और क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो अकेला रहना नहीं चाहता इसलिए बन जाता है नीलकंठ और धारण कर लेता है अपने गले में गरल , जिसे उम्र भर न निगल पाता है और न ही उगल ....

ये है साहित्यजगत का सच , उसका असली चेहरा . शायद यही कारण है यहाँ अक्सर गुट बनते हैं , गुटबाजी होती है . खेमे बनते हैं , संघ बनते हैं . आखिर जिंदा रहने को साथ का टॉनिक जरूरी होता है . उससे और कुछ हो न हो अन्दर का मैं तो संतुष्ट हो ही जाता है . हाँ सराहा जा रहा हूँ मैं . हाँ पहचान बन गयी है मेरे लेखन की . तो क्या हुआ जो जुगाड़ का दांव खेला और अन्दर कर लिए दो चार पुरस्कार . जिंदा रहना जरूरी है . सांस लेना जरूरी है फिर उसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े . आजकल कौन है जो  तलवे नहीं चाटता . तो क्या हुआ यदि हमने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया . उससे गंगा मैली थोड़े न हो गयी . बस जीने को कुछ साँसें मयस्सर हो गयीं . वैसे भी कहा गया है ... सांस है तो आस है .

ऐसे सच का क्या फायदा जो भ्रम में भी न जीने दे . जीने के लिए भ्रमों का होना जरूरी है .फिर गुजर जाती है ज़िन्दगी सुकून से बिना किसी जद्दोजहद के . वैसे भी नाम होना जरूरी है फिर सुमार्ग पर चलो या कुमार्ग पर . और साहित्य में कोई कुमार्ग होता ही नहीं . सभी सुमार्ग ही हैं आखिर हमारे पूर्वज बनाकर गए हैं तो कैसे संभव है वो कभी कुमार्ग पर चले हों और उनका अनुसरण करना ही हमारे देश की संस्कृति है .

जिस कार्य को करने से संतोष मिले , दिमाग शांत रहे और हर मनोकामना पूरी होती जा रही हो वो कैसे गलत हो सकता है भला . वो कहते हैं न काम वो ही करना चाहिए जिससे मानसिक शांति मिले . अब वो ही कर रहे हैं तो हंगामा है क्यों बरपा . चोरी तो नहीं की डाका तो नहीं डाला . अपना मार्ग ही तो चुना है . अब कौन सच से आँख मिला खुद को निष्कासित करे साहित्यजगत से . ये तो खुद अपना पैर कुल्हाड़ी पर रखना हुआ . हाँ नहीं तो ........



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©वन्दना गुप्ता vandana gupta  

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