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गुरुवार, 24 जुलाई 2008

सिसकते ज़ख्म

कभी कभी ऐसा भी होता है
हर ज़ख्म सि्सक रहा होता है
दवा भी मालूम होती है
मगर इलाज ही नही होता है
हर जख्म के साथ कोई याद होती है
एक दर्द होता है ,एक अहसास होता है
मगर फिर भी वो लाइलाज होता है
तन्हाइयाँ कहाँ तक ज़ख्मों का इलाज करें
इन्हें तो आदत पड़ गई है दर्द में जीने की
रोज ज़ख्मों को उधेड़ना और फिर सीना
नासूर बना देता है उन ज़ख्मों को
और नासूर कभी भरा नही करते
इनका इलाज कहीं हुआ नही करता

8 टिप्‍पणियां:

  1. रोज ज़ख्मों को उधेड़ना और फिर सीना
    नासूर बना देता है उन ज़ख्मों को
    और नासूर कभी भरा नही करते
    इनका इलाज कहीं हुआ नही करता

    बेहतरीन रचना

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  2. वाह जी वाह एक और नया बहुत अच्‍छी रचनाओं का सागर हमें मिल गया बहुत अच्‍छी रचनाएं हैं आपकी वंदना जी नाम के ही अनूरुप हो आप बधाई हो

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  3. तन पर लगे घाव इतने नही पीड़ादायी होते हैं।
    मन के जख्म हमेशा,सबको दुखदायी होते हैं।

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  4. कल 01/जुलाई /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर प्रस्तुति , आप की ये रचना चर्चामंच के लिए चुनी गई है , सोमवार दिनांक - ७ . ७ . २०१४ को आपकी रचना का लिंक चर्चामंच पर होगा , कृपया पधारें धन्यवाद

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