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रविवार, 1 फ़रवरी 2009

किश्तें

उधार की ज़िन्दगी
किश्तों में चुकती है
हर पल उधार की तलवार
सिर पर लटकती है
ज़िन्दगी हर किश्त में
तिनके सी
पल पल बिखरती है
इस पल पल बिखरती
ज़िन्दगी से
उधारी तब भी न
चुकती है
ये कैसा उधार है
ये कैसी किश्तें हैं
देते देते ज़िन्दगी
कम पड़ जाती है
मगर
किश्तें कम नही होतीं
हर किश्त पर गुमान होता है
अब इस उधार से
मुक्त हो जायेंगे
पर हर किश्त के बाद
उधारी तब भी
क्यूँ खड़ी रह जाती है
ये पल पल कम पड़ती ज़िन्दगी
उधारी बढाती जाती है
और किश्तें देते देते हम
फिर उसी क़र्ज़ में
डूबे हुए
मौत के आगोश में
सो जाते हैं
फिर एक बार
उधार चुकाने के लिए
किश्तों में
ज़िन्दगी बुलाती है
और हम
बंधुआ मजदूर की मानिन्द
चुकाने को मजबूर हो जाते हैं

7 टिप्‍पणियां:

  1. फिर एक बार
    उधार चुकाने के लिए
    किश्तों में
    ज़िन्दगी बुलाती है
    और हम
    बंधुआ मजदूर की मानिन्द
    चुकाने को मजबूर हो जाते हैं

    -बहुत उम्दा!! सुन्दर!

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  2. जिंदगी से रूबरू कराती कविता| किश्तों की शक्ल में जिंदगी की सच्चाई बयान की है आपने|

    जवाब देंहटाएं
  3. जिन्दगी की सच्चाई की बयानगी है आपकी यह रचना... काश जिन्दगी गबां कर भी यह किश्तें पूरी हो जाती..कभी कभी तो वयाज चुकाते चुकाते ही जिन्दगी खत्म हो जाती है मूल फ़िर भी रह जाता है..

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  4. जिदंगी को फिर से एक नई परिभाषा में बदल दिया। सच पूछिए आपकी सोच और लेखनी कमाल की है।

    फिर एक बार
    उधार चुकाने के लिए
    किश्तों में
    ज़िन्दगी बुलाती है
    और हम
    बंधुआ मजदूर की मानिन्द
    चुकाने को मजबूर हो जाते हैं

    क्या कहूँ। अद्भुत लिखा है।

    जवाब देंहटाएं
  5. फिर एक बार
    उधार चुकाने के लिए
    किश्तों में
    ज़िन्दगी बुलाती है
    और हम
    बंधुआ मजदूर की मानिन्द
    चुकाने को मजबूर हो जाते हैं

    बहुत बेहतरीन!! बधाई।

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