उदासियों ने आकर घेरा है
शायद किसी द्वंद का फेरा है
अंतर्द्वन्द से जूझ रही हूँ
आत्मा से ये पूछ रही हूँ
ये किन गलियों का फेरा है
ये किसके घर का डेरा है
कौन है जो नज़रों में समाया रहता है
और मिलकर भी नही मिलता है
ये किसकी तड़प तडपाती है
हर पल किसकी याद दिलाती है
ये किसकी छवि दिखाती है
और फिर मटमैली हो जाती है
न जाने किस भ्रमजाल में उलझ रही हूँ
किसका पता मैं पूछ रही हूँ
यही नही समझ पाती हूँ
रो-रो आंसू बहाती हूँ
किसकी गलियों में घूम रही हूँ
दर-दर माथा टेक रही हूँ
कोई भी ना समझ पाता है
किसका ठिकाना ढूंढ रही हूँ
ये किस द्वंद में फंस गई हूँ
ये किस द्वंद में डूब गई हूँ
किसकी राह मैं देख रही हूँ
किसकी चाह में उलझ रही हूँ
कुछ भी समझ न आता है
ये किन गलियों का फेरा है
आपके ब्लॉग पर आना अच्छा लगा ....नज्म भी कमाल है ..भाव भी सुंदर हैं
जवाब देंहटाएंumda
जवाब देंहटाएंbahut sundar kavita , vandana.
जवाब देंहटाएंman ki uljhan ko aapne acche shabd diye hai .. seedhi aur sahaj bhaasha ....
meri dil se badhai sweekar kariyenga
vijay
man mein chal rahe khayalaton ko achchha ukera hai
जवाब देंहटाएंवदंना जी आपकी कलम दिनो दिन निखरती जा रही है। रचनाओं में एक नई चमक आने लगी है। वैसे ये गलियों का फेरा क्यों बना रहता है? पसंद आई ये रचना भी।
जवाब देंहटाएंvandana ji, aapki rachna men tadap jaise koi jwalamukhi phatne ko taiyyar hai, lekin kuchh riwazon roopi zamini parton ne roka hua hai.jaise prem apni bulandiyon ko chhoo raha hai. behad sunder bhav hriday ki gahrai se nikalte hue.
जवाब देंहटाएंवन्दना जी।
जवाब देंहटाएंशब्दों में निखार है।
बहार ही बहार है।
उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई।
वंदना जी आपकी हर कविता दिल में एक टीस सी जगाती है..मुझे आपका ये ब्लॉग भी अच्छा लगा..
जवाब देंहटाएं