ज़िन्दगी के
हिस्से होते रहे
टुकड़ों में
बँटती रही
बच्चे की
किलकारियों सा
कब गुजर
गया बचपन
और एक हिस्सा
ज़िन्दगी का
ना जाने
किन ख्वाबों में
खो गया
मोहब्बत ,कटुता
भेदभाव,वैमनस्यता
अपना- पराया
तेरे- मेरे
की भेंट
दूजा हिस्सा
चढ़ गया
कब आकर
पुष्प को
चट्टान
बना गया
पता ही ना चला
आखिरी हिस्सा
ज़िन्दगी का
ज़िन्दगी भर के
जमा -घटा
गुना -भाग
में निकल गया
यूँ ज़िन्दगी
टुकड़ों में
गुजर गयीं
कुछ ना हाथ लगा
और फिर अचानक
मौसम बदल गया
इक अनंत
सफ़र की ओर
मुसाफिर चल दिया
पेज
▼
शनिवार, 31 जुलाई 2010
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
बस वो ना बनाया ..........
मैं
ख्वाब बनी
हकीकत में ढली
नज़्म भी बनी
गीतों में ढली
तेरे सांसों की
सरगम पर
सुरों की झंकार
भी बनी
रूह का स्पंदन
भी बनी
मौसम का खुमार
भी बनी
सर्दी की गुनगुनी
धूप में ढली
कभी शबनम
की बूंद बन
फूलों में पली
तेरे हर रंग में ढली
वो सब कुछ बनी
जो तू ने बनाया
तूने सब कुछ बनाया
मगर वो ना बनाया
जो तेरे अंतर्मन के
दीपक की बाती होगी
तेरे अरमानों की
थाती होती
तेरे हर ख्वाब की
ताबीर होती
तेरी हर धड़कन की
आवाज़ होती
तेरी रूह की पुकार होती
तेरी जान की जान होती
बस वो ना बनाया
तूने कभी
बस वो ना बनाया ..........
ख्वाब बनी
हकीकत में ढली
नज़्म भी बनी
गीतों में ढली
तेरे सांसों की
सरगम पर
सुरों की झंकार
भी बनी
रूह का स्पंदन
भी बनी
मौसम का खुमार
भी बनी
सर्दी की गुनगुनी
धूप में ढली
कभी शबनम
की बूंद बन
फूलों में पली
तेरे हर रंग में ढली
वो सब कुछ बनी
जो तू ने बनाया
तूने सब कुछ बनाया
मगर वो ना बनाया
जो तेरे अंतर्मन के
दीपक की बाती होगी
तेरे अरमानों की
थाती होती
तेरे हर ख्वाब की
ताबीर होती
तेरी हर धड़कन की
आवाज़ होती
तेरी रूह की पुकार होती
तेरी जान की जान होती
बस वो ना बनाया
तूने कभी
बस वो ना बनाया ..........
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
मानव! व्यर्थ भूभार ही बना
ज़िन्दगी व्यर्थ
वक्त की बर्बादी
नतीजा---शून्य
अगर किसी एक
को भी अपना ना बना पाया
या किसी का बन ना पाया
मानव!
व्यर्थ भूभार ही बना
अगर कोई एक
कर्म ना किया ऐसा
जिसे याद रखा जा सके
पूजा का ढोंग
तेरा व्यर्थ गया
ढकोसलों में
ढकी शख्सियत
तेरी व्यर्थ गयी
अगर किसी
एक आँख का
आँसू ना पोंछ सका
मानव !
तू तो
खुद से ही हार गया
अगर
"मैं " को ही ना जीत पाया
जीवन तेरा व्यर्थ ही गया
खाली हाथ आया
और खाली ही चल दिया
वक्त की बर्बादी
नतीजा---शून्य
अगर किसी एक
को भी अपना ना बना पाया
या किसी का बन ना पाया
मानव!
व्यर्थ भूभार ही बना
अगर कोई एक
कर्म ना किया ऐसा
जिसे याद रखा जा सके
पूजा का ढोंग
तेरा व्यर्थ गया
ढकोसलों में
ढकी शख्सियत
तेरी व्यर्थ गयी
अगर किसी
एक आँख का
आँसू ना पोंछ सका
मानव !
तू तो
खुद से ही हार गया
अगर
"मैं " को ही ना जीत पाया
जीवन तेरा व्यर्थ ही गया
खाली हाथ आया
और खाली ही चल दिया
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
काव्य के नए मानक गढ़ने दो
क्यूँ बंदिशों में बांधते हो
क्यूँ बन्धनों में जकड़ते हो
भरने दो इन्हें भी उड़ान
नापने दो इन्हें भी दूरियां
छूने दो इन्हें भी आसमान
कर सकते हो तो इतना करो
क्यूँ बन्धनों में जकड़ते हो
भरने दो इन्हें भी उड़ान
नापने दो इन्हें भी दूरियां
छूने दो इन्हें भी आसमान
कर सकते हो तो इतना करो
हौसले इनके बढ़ाते चलो
मार्ग प्रशस्त करते चलो
क्यूँ लिंगभेद के उहापोह में
दिग्भ्रमित करते हो
रचना तो सबकी होती है
जनक चाहे कोई भी हो
क्यूँ स्त्री पुरुष के भेद को
ना पाट पाते हो
क्यूँ सृजनात्मकता पर
अंकुश लगाते हो
काव्य ---स्त्री या पुरुष
की थाती नहीं
सिर्फ कोमल भावों का
ही तो सृजन होता है
फिर पुरुष हो या स्त्री
भावों पर तो किसी का
जोर नहीं
तब तुम क्यूँ
बाँध बनाते हो
उड़ने दो
उन्मुक्त हवाओं को
बहने दो समय की
धारा के साथ
एक दिन ये भी
नया आकाश
बना देंगी
इन्हें भी रूढ़ियों
को बदलने दो
काव्य के नए
मार्ग प्रशस्त करते चलो
क्यूँ लिंगभेद के उहापोह में
दिग्भ्रमित करते हो
रचना तो सबकी होती है
जनक चाहे कोई भी हो
क्यूँ स्त्री पुरुष के भेद को
ना पाट पाते हो
क्यूँ सृजनात्मकता पर
अंकुश लगाते हो
काव्य ---स्त्री या पुरुष
की थाती नहीं
सिर्फ कोमल भावों का
ही तो सृजन होता है
फिर पुरुष हो या स्त्री
भावों पर तो किसी का
जोर नहीं
तब तुम क्यूँ
बाँध बनाते हो
उड़ने दो
उन्मुक्त हवाओं को
बहने दो समय की
धारा के साथ
एक दिन ये भी
नया आकाश
बना देंगी
इन्हें भी रूढ़ियों
को बदलने दो
काव्य के नए
मानक गढ़ने दो
दोस्तों
ये रचना कल की पोस्ट की ही उपज है क्यूँकि कुछ लोग सोचते हैं कि स्त्री को स्त्री के भावों पर ही लिखना चाहिये और पुरुष को पुरुष् के भावों पर मगर मेरे ख्याल से तो भावों को बांधा नही जा सकता इसलिए फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष वो जो भी मह्सूस करे उसे लिखने देना चाहिये …………हो सकता है काव्य की दृष्टि से ये बात सही हो मगर मुझे इसका ज्ञान नही है और जरूरत भी नही है क्यूँकि भाव तो किसी भी बंधन को स्वीकार नही करते………बस कल यूँ ही ये भाव बन गये तो आपके समक्ष प्रस्तुत कर दिये।
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
वरना आफताब पा गया होता..........
घर की देहरी
पार कर भी ले
मन की देहरी
ना लाँघ पाया कभी
तेरे मन की दहलीज
पर अपने मन की
बन्दनवार सजाई
मगर फिर भी
सूक्ष्म, अनवरत
बहते विचारों को
मथ ना पाया कभी
ना जाने कौन सा
सतत प्रवाह
रोकता रहा
बढ़ने से
कौन सा बाँध
बना था
तेरे मन की
देहरी पर खिंची
लक्ष्मण रेखा पर
जिसे आज तक
ना तू लाँघ पाया
ना मुझे ही आने
की इजाजत दी
मन की खोह
में छिपी कौन सी
प्रस्तर प्रतिमा
रोकती है तुझे
जिसके अभिशाप
से कभी मुक्त
ना हो पाया
ना वर्तमान को
अपना पाया
ना भविष्य
को सजा पाया
सिर्फ भूत के
बिखरे टुकड़ों
में खुद को
मिटाता रहा
एक छोटी- सी
रेखा ना लाँघ
पाया कभी
वरना आफताब सी
प्रेम की तपिश
पा गया होता
माहताब तेरा
बन गया होता
जीवन तेरा
सँवर गया होता
पार कर भी ले
मन की देहरी
ना लाँघ पाया कभी
तेरे मन की दहलीज
पर अपने मन की
बन्दनवार सजाई
मगर फिर भी
सूक्ष्म, अनवरत
बहते विचारों को
मथ ना पाया कभी
ना जाने कौन सा
सतत प्रवाह
रोकता रहा
बढ़ने से
कौन सा बाँध
बना था
तेरे मन की
देहरी पर खिंची
लक्ष्मण रेखा पर
जिसे आज तक
ना तू लाँघ पाया
ना मुझे ही आने
की इजाजत दी
मन की खोह
में छिपी कौन सी
प्रस्तर प्रतिमा
रोकती है तुझे
जिसके अभिशाप
से कभी मुक्त
ना हो पाया
ना वर्तमान को
अपना पाया
ना भविष्य
को सजा पाया
सिर्फ भूत के
बिखरे टुकड़ों
में खुद को
मिटाता रहा
एक छोटी- सी
रेखा ना लाँघ
पाया कभी
वरना आफताब सी
प्रेम की तपिश
पा गया होता
माहताब तेरा
बन गया होता
जीवन तेरा
सँवर गया होता
सोमवार, 12 जुलाई 2010
यही तो अमर प्रेम है ………………है ना
दोस्तों ,
आज की पोस्ट में हम सबकी साथी कुसुम ठाकुर जी को समर्पित कर रही हूँ क्यूंकि आज उनका जन्मदिन है और कल उनकी शादी की सालगिरह ..........इसमें उनके भावों को शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रही हूँ और उनकी उस महान भावना के आगे नतमस्तक हूँ ..........शायद यही तो अमर प्रेम होता है ............ये सिर्फ एक कोशिश है मगर शायद अभी भी काफी कुछ अधूरा रह गया हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ क्यूंकि जितना उनको समझा है और जाना है उसी आधार पर ये लिखने का प्रयत्न कर रही हूँ .........
तुम्हें याद है
कल हमारे
वैवाहिक बँधन
में वक़्त एक
और यादों की
लकीर छोड़ रहा है
कल का दिन
तुम्हारे और मेरे
जीवन का अनमोल दिन
हमारा बँधन
शरीरों का तो
रहा ही नहीं
आत्मिक बँधन
कब किसी
बँधन को
स्वीकारते हैं
आज तुम
मेरे पास नहीं
वहाँ जा चुके हो
जहाँ से कोई आता नहीं
सब यही कहते हैं
क्या हमारा
बँधन शरीरों
का था
नहीं ना
क्या तुम
मेरे पास नही
मुझे तो तुम
कभी
दूर दिखे ही नहीं
हर पल
मेरे साथ ही
तो होते हो
मेरी साँसों
में बसते हो
मेरे दिल में
धड़कन बन
धड़कते हो
मेरे रोम- रोम में
तुम्हारा ही तो
अक्स झलकता है
देखो मैं
आज भी वैसे ही
वर्षगाँठ मानती हूँ
क्यूँकि तुम
मेरे साथ हो
मेरे पास हो
मैं तो आज भी
तुम्हारे लिए ही
सँवरती हूँ
जैसा तुम चाहते थे
मुझे हमेशा
इन्द्रधनुषी
रंगों सा
खिला - खिला देखना
और मैं तुम्हारे
रंगों में रंगी
आज भी प्रीत की
रंगोली सजाती हूँ
आत्मिक बँधन को
वो क्या जाने
जो कभी
शरीर से ऊपर
उठे ही नहीं
देखो अब
मुझे कल का
इंतज़ार है
जैसे हमेशा
होता था
जब तुम और मैं
एक साथ
मोहब्बत की
रस्म निभाएंगे
शायद तुम्हें भी
उसी लम्हे का
इंतज़ार होगा
है ना................
आज की पोस्ट में हम सबकी साथी कुसुम ठाकुर जी को समर्पित कर रही हूँ क्यूंकि आज उनका जन्मदिन है और कल उनकी शादी की सालगिरह ..........इसमें उनके भावों को शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रही हूँ और उनकी उस महान भावना के आगे नतमस्तक हूँ ..........शायद यही तो अमर प्रेम होता है ............ये सिर्फ एक कोशिश है मगर शायद अभी भी काफी कुछ अधूरा रह गया हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ क्यूंकि जितना उनको समझा है और जाना है उसी आधार पर ये लिखने का प्रयत्न कर रही हूँ .........
तुम्हें याद है
कल हमारे
वैवाहिक बँधन
में वक़्त एक
और यादों की
लकीर छोड़ रहा है
कल का दिन
तुम्हारे और मेरे
जीवन का अनमोल दिन
हमारा बँधन
शरीरों का तो
रहा ही नहीं
आत्मिक बँधन
कब किसी
बँधन को
स्वीकारते हैं
आज तुम
मेरे पास नहीं
वहाँ जा चुके हो
जहाँ से कोई आता नहीं
सब यही कहते हैं
क्या हमारा
बँधन शरीरों
का था
नहीं ना
क्या तुम
मेरे पास नही
मुझे तो तुम
कभी
दूर दिखे ही नहीं
हर पल
मेरे साथ ही
तो होते हो
मेरी साँसों
में बसते हो
मेरे दिल में
धड़कन बन
धड़कते हो
मेरे रोम- रोम में
तुम्हारा ही तो
अक्स झलकता है
देखो मैं
आज भी वैसे ही
वर्षगाँठ मानती हूँ
क्यूँकि तुम
मेरे साथ हो
मेरे पास हो
मैं तो आज भी
तुम्हारे लिए ही
सँवरती हूँ
जैसा तुम चाहते थे
मुझे हमेशा
इन्द्रधनुषी
रंगों सा
खिला - खिला देखना
और मैं तुम्हारे
रंगों में रंगी
आज भी प्रीत की
रंगोली सजाती हूँ
आत्मिक बँधन को
वो क्या जाने
जो कभी
शरीर से ऊपर
उठे ही नहीं
देखो अब
मुझे कल का
इंतज़ार है
जैसे हमेशा
होता था
जब तुम और मैं
एक साथ
मोहब्बत की
रस्म निभाएंगे
शायद तुम्हें भी
उसी लम्हे का
इंतज़ार होगा
है ना................
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
मैं कुछ पल का ब्लॉगर हूँ
मैं कुछ पल का ब्लॉगर हूँ
कुछ पल की मेरी पोस्टें हैं
कुछ पल की मेरी हस्ती है
कुछ पल की मेरी ब्लॉगिंग है
मैं कुछ पल ...........................
मुझसे पहले कितने ब्लॉगर
आये और आकर चले गए ,चले गए
कुछ झंडे गाड़कर चले गए
कुछ ठोकर खाकर चले गए,चले गए
वो उस पल की ब्लॉगिंग का हिस्सा थे
मैं इस पल की ब्लॉगिंग का हिस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊँगा
जो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
मैं कुछ पल .........................................
कल और आयेंगे ब्लॉगिंग की
नयी ऊँचाइयाँ छूने वाले
हमसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर पढने वाले
कल कोई किसी को याद करे
क्यूँ कोई किसी को याद करे
मसरूफ ज़माना ब्लॉगिंग के लिए
क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
मैं कुछ पल ........................
कुछ पल की मेरी पोस्टें हैं
कुछ पल की मेरी हस्ती है
कुछ पल की मेरी ब्लॉगिंग है
मैं कुछ पल ...........................
मुझसे पहले कितने ब्लॉगर
आये और आकर चले गए ,चले गए
कुछ झंडे गाड़कर चले गए
कुछ ठोकर खाकर चले गए,चले गए
वो उस पल की ब्लॉगिंग का हिस्सा थे
मैं इस पल की ब्लॉगिंग का हिस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊँगा
जो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
मैं कुछ पल .........................................
कल और आयेंगे ब्लॉगिंग की
नयी ऊँचाइयाँ छूने वाले
हमसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर पढने वाले
कल कोई किसी को याद करे
क्यूँ कोई किसी को याद करे
मसरूफ ज़माना ब्लॉगिंग के लिए
क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
मैं कुछ पल ........................