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शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

ये कौन से शहर का है आदमी

ये कौन से शहर का है आदमी 
जो रात भर सोता नहीं

खिलौनों  और रोटी  के लिए 
अब यहाँ का बच्चा रोता नहीं 

गुदड़ी में ही बड़ा हो जाता है जो 
बचपन उस पर कभी आता नहीं 


रात भर दौड़ती हैं  सडकें जहाँ
सुना है शहरों में अब दिन होता नहीं 

रौशनी से चकाचौंध हैं रातें 
अब दिन किसी को लुभाते नहीं


इंसानियत की बात कोई कर जाए 
ऐसा इस जहाँ में अब होता नहीं 


बिन पंखों के आकाश नापा करते हैं
पंख वालों को यहाँ कोई पूछता नहीं 


चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं


कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं 


वो  सुबह  कभी  तो  आएगी
इस आस में आदमी अब जीता नहीं 


हालात को नसीब का खेल मान  
 रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं 

29 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया ग़ज़ल.. शहरी जीवन.. आधुनिकता पर करार चोट.. अदभुद..

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  2. आपकी यह रचना पढकर अज्ञेय की एक कविता याद आ गई,

    पहाड़ नहीं कांपता न पेड, न तटाई

    कांपती है ढाल के घर से
    नीचे झील पर झरी
    दिए की लौ की नन्‍ही परछाई

    सचिदानंद हीरानंद अज्ञेय

    बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
    शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोsस्तु ते॥
    महाअष्टमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

    स्वरोदय महिमा, “मनोज” पर!

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  3. वो सुबह कभी तो आएगी
    इस आस में अब जीता नहीं आदमी

    हालात को नसीब का खेल मान
    रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं आदमी
    --

    समाज की विकृतियों को दर्शाती और आशा की किरण जगाती इस सुन्दर रचना के लिए बधाई!

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  4. वो सुबह कभी तो आएगी
    इस आस में अब जीता नहीं आदमी ............................


    very touchy and realistic lines..kudos

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  5. आपकी कविताओं में कलात्मक शब्द शिल्प के कौशल का मुझे इस कविता में अभाव दिखा.लगता है आपने शब्दों को तराशने में ज़ल्दबाज़ी कर दी.शहर की जिंदगी में कवि के दिन और रात के रूमानी और इंसानी ज़ज्बात के दर्शन नहीं हो सकते क्योंकि अब इंसान के अंदर सौन्दर्यबोधक संवेदनशीलता की जगह निस्पृह अर्थसत्ता ने ले लिया है जिसे अपनी प्रकृति के बारे में न तो कोई ज्ञान है और न ही उसी जानने समझने का रुझान. आपकी कविता में आज के शहर के हर पहलू को छूने की कोशिश की गयी है. आलोचनात्मक और वैचारिक दृष्टि से ये अच्छी कविता है लेकिन कलात्मक शिल्प की दृष्टि से कमज़ोर.गुज़ारिश करूँगा कि हम कला पक्ष को भी ध्यान में रखें ताकि आपके कहे शब्द पाठक पर ज्यादा से ज्यादा प्रभाव छोड़ सके.

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  6. यी आज का आदम्जी है। बहुत बडिया रचना। बधाई।

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  7. रौशनी से चकाचौंध हैं रातें
    अब दिन किसी को लुभाते नहीं

    विसंगतियाँ ही विसंगतियाँ हैं.
    सुन्दर रचना

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  8. गहरी सम्वेदनाएं प्रकट करती रचना!!

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  9. अब क्या करें वंदना जी ज़िन्दगी ही कुछ ऐसी हो गयी है, हमारा कोई दोष नहीं...

    मेरे ब्लॉग पर इस बार ....

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  10. वर्तमान की वास्तविक का सही बखान कराती बहुत अच्छी रचना ...धन्यवाद !
    यहाँ भी पधारे
    हे माँ दुर्गे सकल सुखदाता

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  11. सच ही कहा...

    बहुत उम्दा रचना...

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  12. चाँद की चाँदनी से भी जलने लगे
    ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नही
    बहुत खूब

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  13. सचमुच आप ने फ़्ररेबी और स्वार्थी दुनियां को खूबसूरती से बेनकाब किया है !

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  14. वाह...वाह..वंदना जी...सच्ची बातें कहीं हैं आपने अपनी इस विलक्षण रचना में...बेहतरीन...

    नीरज

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  15. bahut badhiya ..

    चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
    ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं

    कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
    असली फूलों के रंग अब भाते नहीं


    bahut sundar likha hai..sachchaayi ko kahati huyi rachna

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  16. सुन्दर भावाव्यक्ति व विषय चयन---जैसा राजीव ने कहा, शिल्प की कमी है---
    १, नहीं , रदीफ़ है परन्तु अन्तिम दो शेरों में आदमी करदिया है--इसे आदमी नहीं करना चाहिये।
    २. काफ़िया-शुरू में ’आ’ की मात्रा है--सोता, रोता --बाद में ’ए’ होगया लुभाते, जलने--जो अन्त तक एक सा ही होना चाहिये।
    ३. मात्रा दोष( बहर ) भी है।
    ४. भाव दोष यह है कि-खिलोनों व रोटी को बच्चे अब भी रो रहे हैं.
    --रंजो गम तो आज सभी पीरहे हैं, आस में ही तो जी रहे हैं।

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  17. @राजीव जी,

    @श्याम गुप्त जी,

    आप दोनो की तहे दिल से शुक्रगु्ज़ार हूं कि आपने गलतियों की तरफ़ ध्यान दिलाया…………अब आपके आगे अपने दोष भी रख दूँ कि मुझे सच मे बहर या मात्रा मे लिखना नही आता …………मुझे नही पता गज़ल कैसे लिखी जाती है बस मै तो अपने भावों को व्यक्त कर देती हूँ जिस भी रूप मे दिल मे आते हैं…………एक बार फिर आप दोनो की आभारी हूँ।

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  18. accha laga aapko pad kar...

    mere blog par bhi aapka swagat hai :)

    http://vinvari.blogspot.com/

    thanks,
    Vins

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  19. कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
    असली फूलों के रंग अब भाते नहीं

    क्या बात है ....!!

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  20. बहुत ही संजीदा अभिव्यक्ति

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  21. अब आदमी आदमी कहाँ रह गया है ..... बहुत प्रश्न खड़े करेती है रचना ...

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  22. ITNA BADA SACH KI DIL DAHAL GAYA.
    REALLY A POEM WHICH IS REAL DITY OF A POET/POETESS.
    THANKS.

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अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया