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सोमवार, 15 नवंबर 2010

अतिक्रमण

ना जाने क्यूँ 
अतिक्रमण 
करते हैं हम
कभी ज़मीन का

कभी अधिकारों का
कभी भावनाओं का
तो कभी मर्यादाओं का
शायद हमारे
लहू में ही
कोई जीन

अतिक्रमणता
का काबिज़
हो गया है
जो अपनी
सीमाओं में
रहने  को
अपना अपमान
समझता है
सीमाओं का
उल्लंघन
उसकी
प्राथमिकता
होती है
फिर उससे चाहे
किसी का भी
जीवन धराशायी
क्यूँ ना हो जाये
अतिक्रमण करने
वालों का कोई
ईमान नहीं होता
उन्हें परवाह
नहीं होती
कितने दिल टूटे
किसका आशियाँ
उजड़ा
किसका जहाँ
बर्बाद हुआ
किसी के भी
अरमानों का 

जनाजा ही
क्यूँ ना निकल जाए
कोई सरे बाज़ार
बदनाम ही
क्यूँ ना हो जाए
मगर अतिक्रमण
करना जरूरी है
और शायद
भावनाओं का तो
बेहद जरूरी
तभी हम
स्वयं को
शरीफ और

समाज की
सशक्त कड़ी
साबित कर पाएं
और अतिक्रमणता

को मुकाम दे पायें

22 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही खूबसूरत रचना ..जीवन में न जाने हम कितने तरह के अतिक्रमण करते और झेलते हैं.. वास्तविकता बयान करती रचना...

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  2. इस कविता में आपके विचार और मन:स्थिति का अधिक कौशल के साथ चित्रण हुआ है। एक सशक्त रचना।

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  3. अतिक्रमण चाहे वो किसी तरह का हो हमारे जीवन में नासूर की तरह हो गया है . हमेशा की तरह सुन्दर एवं सार्थक अभिव्यक्ति , आभार

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  4. किसी के जीवन में कोई अतिक्रमण न हो।

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  5. ....हमारे
    लहू में ही
    कोई जीन
    अतिक्रमणता
    का काबिज़
    हो गया है
    जो अपनी
    सीमाओं में
    रहने को
    अपना अपमान
    समझता है
    --
    अतिक्रमण को लेकर एक सुन्दर और सशक्त रचना के लिए बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  6. भावनाओं का अतिक्रमण !---एक जरूरी और सार्थक सोच !...सहमत हूँ आपसे।

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  7. आदरणीय वन्दना जी
    नमस्कार !
    तभी हम
    स्वयं को
    शरीफ और
    समाज की
    सशक्त कड़ी
    साबित कर पाएं
    और अतिक्रमणता
    को मुकाम दे पायें
    पसंद आया यह अंदाज़ ए बयान आपका. बहुत गहरी सोंच है

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  8. विरोधाभास शैली में लिखी व्यंगात्मक रचना अच्छी लगी ...विचारणीय बात

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  9. ये अतिक्रमण बहुत ही घातक होता है.मगर अतिक्रमणता ख़ास तौर से भावनाओं के अतिक्रमण को मुकाम देने की आपकी सोच शायद एक व्यंग्य है.
    मेरा तो यही मानना है कि अतिक्रमण हर रूप में हानिकारक ही होता है.

    कुल मिला कर एक अनछुए विषय पर बेहतर प्रस्तुति.

    सादर-

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  10. रिश्तों को सहेजने के लिए प्रेरित करती सुन्दर कविता..

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  11. वन्दना जी,

    बहुत सुन्दर.....बहुत गहरी बात उठाई है आपने और इस भावना को जो नाम दिया है 'अतिक्रमण' ....वाह बहुत खूब......बहुत सच बात कही है आपने मैं आपसे सहमत हूँ इस मामले में......शुभकामनायें|

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  12. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..


    http://charchamanch.blogspot.com/

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  13. बहुत खूबसूरती से लिखा आपने...बधाई.


    _________________
    'शब्द-शिखर' पर पढ़िए भारत की प्रथम महिला बैरिस्टर के बारे में...

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  14. अतिक्रमण करने वालों का कोई ईमान नहीं होता...वाह...कितनी सच्ची बात कही है आपने...इस कमाल की रचना के लिए बधाई...

    नीरज

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  15. वंदना जी,

    अतिक्रमण : सीमाओं को लांघने पर सजीव चित्रण।

    मन अतिक्रमण के लिये अभिशप्त है।

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  16. आज का जीवन बिना अतिक्रमण का नहीं चलता।

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  17. भावों की सशक्त प्रस्तुति ,एक संदेश भी ।

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  18. सुन्दर रचना .. अतीक्र्मन तो एक केंसर है जो जिस जगह होता है नासूर का दर्द देता है... बड़ी कुशलता से आपने बात कही..

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  19. दुनिया में सारा झगड़ा ही अतिक्रमण का है। हम सब अपनी सत्ता को स्‍थापित करने के लिए दिन रात लगे रहते हैं। यह जीन घुस नहीं आया है अपितु स्‍थापित है। अच्‍छी रचना, बधाई।

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  20. अतिक्रमण न हो तो शायद संक्रमण भी न हो

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अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया