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सोमवार, 27 अगस्त 2012

धन्य हो तुम ! जो मुझे विस्तार देते हो

मैं
भाव साम्राज्य का पंछी
तुम पंखों की परवाज हो
मैं आन्दतिरेक का सिन्धु
तुम मोती खोजते गोताखोर
मैं सरगम की सिर्फ एक तान 
तुम उसका बजता जलतरंग
कैसे तुमसे विलग मैं
कैसे मुझसे पृथक तुम 
तुम बिन शायद अस्तित्व 
मेरा शून्य बन जाये
शायद ही कोई मुझे समझ पाए
या मेरे भावों में उतर पाए
धन्य हो तुम ! जो मुझे विस्तार देते हो
मेरी कृति के बखिये उधेड़ देते हो
मुझे और मेरी कृतित्व  को 
एक नया रूप देते हो 
सोच को दिशा देते हो 
अर्थों को तुम मोड़ देते हो 
शब्दों की यूँ व्याख्या करते हो 
जैसे रूह को स्पंदन देते हो 
जहाँ मौन भी धड़कने लगता है
ज़र्रा ज़र्रा बोलने लगता है 
मूक को भी जुबाँ मिल जाती है 
यूँ हर कृति खिल जाती है 
तुम संग मेरा अटूट नाता
गर मैं हूँ रचयिता 
तो तुम हो पालनहार 
कैसे तुमसे विमुख रहूँ
कैसे ना तुम्हें नमन करूँ
मुझसे ज्यादा मुझे विस्तार देते हो 
मेरी कृति को मुझसे ज्यादा समझते हो 
हाँ मैं हूँ कवि सिर्फ कवि 
और तुम हो समीक्षक ...........मेरी विस्तारित आवाज़

16 टिप्‍पणियां:

  1. कई बार अन्यमनस्क हुई हूँ
    यह विस्तार न मिलता
    तो क्या होता !!!

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  2. बेहतरीन भाव लिए उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति ..आभार

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  3. जो मुझे विस्तार देते हो
    मेरी कृति के बखिये उधेड़ देते हो
    मुझे और मेरी कृतित्व को एक नया रूप देते हो
    बहुत खूब ! उम्दा सोच की उत्तम अभिव्यक्ति :)

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  4. मुझे यह कविता प्रकृति और पुरुष के शाश्वत अंतर्संबंधों की बेहतरीन अभिव्यक्ति लग रही है. बहुत ही सुंदर रचना. बधाई हो.

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  5. सच्चा समीक्षक ही सही में विस्तार देता है ....बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  6. जो मुझे विस्तार देते हो

    बहुत खूब

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  7. मन के अक भाव को कितना आकार मिल जाता है।

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  8. हाँ मैं हूँ कवि सिर्फ कवि और तुम हो समीक्षक ...........मेरी विस्तारित आवाज़ ..bahut umda..

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  9. यूँ ही विस्तार मिलता रहे ......

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  10. समीक्षक के महत्त्व को तसलीम करती भावमय रचना है ...

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  11. आप की कविता पढ़कर महादेवी वर्मा की याद आगयी। बहूत अच्छा लगा। कभी mankamanthan पर भी आना।

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