राघवेन्द्र अवस्थी जी से किसी ने ये प्रश्न किया तो उन्होने तो अपनी वाल पर जवाब दे दिया मगर हमारे भी भाव उतरे बिना ना रह सके तो प्रस्तुत है हमारे भावों का सागर …………
तुमने पूछा
जब तुम नहीं रहोगी
तो कौन सी कविता
लिखूँगा मैं ?
उस पर तुम्हारी जिद
अभी सुना दो
जाने के बाद कैसे पढूंगी मैं
उफ़ ..........आखिर ले ही लिया इम्तिहान मोहब्बत का
आखिर ज़िन्दा ही आग लगा दी चिता को
और देखो अब सिंक रहा हूँ मैं
तुम्हारे तपाये तवे की तपिश में
कितना दुरूह है ये ख्याल
कभी सोचा तुमने ?
और मुझे कह रही हो
लिखो वो जो तुम तब मह्सूसोगे
जो कल होना है
वो आज महसूसना .........क्या इतना आसान है?
उन पलों से गुजरना
जैसे दोज़ख की आग में जल रहा हो कोई
फिर भी तुम्हारी ख्वाहिश है ना
तो कोशिश जरूर करूंगा
शायद इसके बाद ना फिर कभी कुछ कह सकूंगा
शायद तुम्हारे जाने के बाद भी नहीं ...........
शायद आखिरी कलाम हो ये मेरा
मेरी मोहब्बत के नाम
चलो बाँध देता हूँ बाँध आखिरी मोहब्बत के नाम
जाने के बाद……………
मेरी खामोश मोहब्बत की दस्तखत थीं तुम
जिसमे मैंने पलों को नहीं संजोया था
नहीं संजोया था तुम्हारी हँसी को
तुम्हारी चहलकदमी को
तुम्हारी उदासी या खिलखिलाहट को
नहीं थी तुम मेरे लिए सिर्फ मेरी प्रियतमा
जीवन संगिनी या कोई अप्सरा
जो संजो लेता यादों के आशियाने में तुम्हें
ये तुम जानती थीं तुम क्या थीं मेरे लिए
थीं क्यों कहूं तुम क्या हो मेरे लिए
क्योंकि तुम गयी कहाँ हों
यहीं तो हो ............मेरे वजूद में
अपनी उपस्थिति का अहसास करतीं
तभी तो देखो ना
सुबह सुबह सबसे पहले
प्रभु सुमिरन , दर्शन के बाद
रोज लग जाता हूँ उसी तरह गृहकार्य में
और समेट लेता हूँ
सुबह का दिव्य आलोकित नाद अपने अंतरपट में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे तुम किया करती थीं
तो बताओ कहाँ जुदा हो तुम
जो सहेजूँ यादों के छोरों में
दिन के चढ़ने के साथ बढ़ता ताप
मुझे बैठा देता है अपने पास
जहाँ मैं अपनी कल्पनाओं को उड़ान देता हूँ
और पता ही नहीं चलता
वक्त खुद गुजरा या मैंने उसे रुसवा किया
क्योंकि मेरे पास आकर
वक्त भी ख़ामोशी से मुझे ताकता है
कि कब सिर उठाऊँ और उसे आवाज़ दूं
मेरी साधना में बाधा नहीं ड़ाल पाता
तो खुद मायूस हो ताकता रहता है मुझे
बिल्कुल वैसे ही जैसे जब तुम थीं
तो यूँ ही साध्नामग्न हो जाती थीं
और वक्त तुम्हारे पायताने पर
कुलाचें भरता रहता था
बताओ फिर कैसे वजूद जुदा हुए
तुम मुझमे ही तो सिमटी हो
कोई भी कड़ी ऐसी नहीं जो भिन्न हो
फिर कहो तो कौन किसे याद करे
यहाँ तो खुद को ढूँढने निकलता हूँ
तो तुम्हारा पता मिल जाता है
और मैं तुम्हारे घर की चौखटों पर
अपने अक्स से बतियाता हूँ
पता ही नहीं चलता
कौन किससे बतिया रहा है
सुना है दीवाना कहने लगे हैं कुछ लोग
मगर नहीं जानते ना
तुम मेरी लिए सिर्फ प्रेयसी या पत्नी ही नहीं थीं
बल्कि मेरी प्रकृति बन गयी थीं / नहीं बन गयी हो
तभी तो कब कोई भी वजूद
अपनी प्रकृति बदल सकता है
और सुना है इन्सान का सब कुछ बदल सकता है
मगर प्रकृति नहीं ..........स्वाभाविक होती है
शायद तभी तो नहीं खोजता तुम्हें
नहीं ढूँढता तुम्हें घर आँगन में
तस्वीरों के उपादानों में
यादों के गलियारों में
तन्हाई की महफ़िलों में
क्योंकि जुदा वजूदों पर ही दस्तावेज लिखे जाते हैं
और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो .........ओ मेरी जीवनरेखा !!!!!!!!
तुमने पूछा
जब तुम नहीं रहोगी
तो कौन सी कविता
लिखूँगा मैं ?
उस पर तुम्हारी जिद
अभी सुना दो
जाने के बाद कैसे पढूंगी मैं
उफ़ ..........आखिर ले ही लिया इम्तिहान मोहब्बत का
आखिर ज़िन्दा ही आग लगा दी चिता को
और देखो अब सिंक रहा हूँ मैं
तुम्हारे तपाये तवे की तपिश में
कितना दुरूह है ये ख्याल
कभी सोचा तुमने ?
और मुझे कह रही हो
लिखो वो जो तुम तब मह्सूसोगे
जो कल होना है
वो आज महसूसना .........क्या इतना आसान है?
उन पलों से गुजरना
जैसे दोज़ख की आग में जल रहा हो कोई
फिर भी तुम्हारी ख्वाहिश है ना
तो कोशिश जरूर करूंगा
शायद इसके बाद ना फिर कभी कुछ कह सकूंगा
शायद तुम्हारे जाने के बाद भी नहीं ...........
शायद आखिरी कलाम हो ये मेरा
मेरी मोहब्बत के नाम
चलो बाँध देता हूँ बाँध आखिरी मोहब्बत के नाम
जाने के बाद……………
मेरी खामोश मोहब्बत की दस्तखत थीं तुम
जिसमे मैंने पलों को नहीं संजोया था
नहीं संजोया था तुम्हारी हँसी को
तुम्हारी चहलकदमी को
तुम्हारी उदासी या खिलखिलाहट को
नहीं थी तुम मेरे लिए सिर्फ मेरी प्रियतमा
जीवन संगिनी या कोई अप्सरा
जो संजो लेता यादों के आशियाने में तुम्हें
ये तुम जानती थीं तुम क्या थीं मेरे लिए
थीं क्यों कहूं तुम क्या हो मेरे लिए
क्योंकि तुम गयी कहाँ हों
यहीं तो हो ............मेरे वजूद में
अपनी उपस्थिति का अहसास करतीं
तभी तो देखो ना
सुबह सुबह सबसे पहले
प्रभु सुमिरन , दर्शन के बाद
रोज लग जाता हूँ उसी तरह गृहकार्य में
और समेट लेता हूँ
सुबह का दिव्य आलोकित नाद अपने अंतरपट में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे तुम किया करती थीं
तो बताओ कहाँ जुदा हो तुम
जो सहेजूँ यादों के छोरों में
दिन के चढ़ने के साथ बढ़ता ताप
मुझे बैठा देता है अपने पास
जहाँ मैं अपनी कल्पनाओं को उड़ान देता हूँ
और पता ही नहीं चलता
वक्त खुद गुजरा या मैंने उसे रुसवा किया
क्योंकि मेरे पास आकर
वक्त भी ख़ामोशी से मुझे ताकता है
कि कब सिर उठाऊँ और उसे आवाज़ दूं
मेरी साधना में बाधा नहीं ड़ाल पाता
तो खुद मायूस हो ताकता रहता है मुझे
बिल्कुल वैसे ही जैसे जब तुम थीं
तो यूँ ही साध्नामग्न हो जाती थीं
और वक्त तुम्हारे पायताने पर
कुलाचें भरता रहता था
बताओ फिर कैसे वजूद जुदा हुए
तुम मुझमे ही तो सिमटी हो
कोई भी कड़ी ऐसी नहीं जो भिन्न हो
फिर कहो तो कौन किसे याद करे
यहाँ तो खुद को ढूँढने निकलता हूँ
तो तुम्हारा पता मिल जाता है
और मैं तुम्हारे घर की चौखटों पर
अपने अक्स से बतियाता हूँ
पता ही नहीं चलता
कौन किससे बतिया रहा है
सुना है दीवाना कहने लगे हैं कुछ लोग
मगर नहीं जानते ना
तुम मेरी लिए सिर्फ प्रेयसी या पत्नी ही नहीं थीं
बल्कि मेरी प्रकृति बन गयी थीं / नहीं बन गयी हो
तभी तो कब कोई भी वजूद
अपनी प्रकृति बदल सकता है
और सुना है इन्सान का सब कुछ बदल सकता है
मगर प्रकृति नहीं ..........स्वाभाविक होती है
शायद तभी तो नहीं खोजता तुम्हें
नहीं ढूँढता तुम्हें घर आँगन में
तस्वीरों के उपादानों में
यादों के गलियारों में
तन्हाई की महफ़िलों में
क्योंकि जुदा वजूदों पर ही दस्तावेज लिखे जाते हैं
और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो .........ओ मेरी जीवनरेखा !!!!!!!!
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 01/09/2012 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं"क्योंकि जुदा वजूदों पर ही दस्तावेज लिखे जाते हैं
जवाब देंहटाएंऔर तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो !"
वाह! खूबसूरत भावों से पिरोई सुन्दर कविता !
भावनाओं को उद्वेलित कर देने वाली नज़्म....इसपर कुछ कहने की जगह बहते जाने का मन होता है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन, सशक्त और शानदार पोस्ट.....हैट्स ऑफ इसके लिए।
जवाब देंहटाएंबेहद संवेदनशील रचना , उद्देलित करती और कही दूर तक निराशा ही निराशा भरती .... काश ये समय न रहे , शब्दों में वही खिलखिलाहट हो जिसके लिए आप जानी जाती हैं . कविता अच्छी है
जवाब देंहटाएंअद्भुत .... बहुत सुंदर एक ही शब्द ...वाह
जवाब देंहटाएंवाह ... बेहतरीन अभिव्यक्ति ... नि:शब्द कर दिया आपने ...
जवाब देंहटाएंचेतन अचेतन , प्राप्य अप्राप्य , ख़ुशी दुःख.... और भावों का रूहानी उत्कर्ष
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रभावी..
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति है
जवाब देंहटाएंसशक्त..कविता
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह: बहुत सुन्दर भाव..
जवाब देंहटाएंअद्भुत ! प्रेम की तीव्रता को बयां करती हुई सुंदर रचना..
जवाब देंहटाएंक्योंकि जुदा वजूदों पर ही दस्तावेज लिखे जाते हैं
जवाब देंहटाएंऔर तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो .
....बहुत भावमयी सशक्त अभिव्यक्ति...उत्कृष्ट प्रस्तुति.....
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (01-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअद्धभुत रचना....
:-)
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंHATS OFF....Adbhut
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता |
जवाब देंहटाएंuttam utkrish prastuti
जवाब देंहटाएंrachana