दोस्तों
इस बार तबियत सही नही होने के कारण इतनी देर हो गयी और अब जाकर पूरी तरह कस्तूरी को पढ पायी और अपने विचार लिख पायी । सभी इंतज़ार मे थे और पूछ रहे थे कि आप कब लिखेंगी मगर सर्वाइकल की वजह से ज्यादा देर कम्प्यूटर पर काम नही कर पाती सिर्फ़ पढती ज्यादा हूँ आजकल और लिखती कम हूँ इसलिये सबकी पोस्ट पढ लेती हूँ मगर कमेंट कम ही करती हूँ जितना सम्भव हो पाता है उम्मीद है आप सब निराश नही होंगे अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की है अपने विचारों से आप सबको अवगत कराने की ………तो चलिये मेरे साथ कस्तूरी के सफ़र पर …………
मैं कस्तूरी हूँ ..........कस्तूरी वो ही जो अपनी सुगंध से सारे वातावरण को महकाती है , जिसे मृग अपनी कुंडली में लिए खोजता फिरता है मगर हाथ नहीं आती . मेरी सुगंध से मदहोश होती फिजा ना जाने कितने ही रूप अपने में समेट लेती है और फिर एक एक करके अपने आँचल से बाहर निकालती रहती है और एक मनमोहक सुरम्य वातावरण हर पल ह्रदयों को उल्लसित प्रफुल्लित करता रहता है तभी तो देखो मेरे आँगन की पहली फुहार में कौन भीग रहा है ........
ये हैं अजय देवगिरे जो प्रेम की बयार में ऐसे बह गए हैं कि उन्हें चारों तरफ सिर्फ तू ही तू है नज़र आती , तो कभी जाने वो किधर है ढूंढते फिरते हैं ये आलम तभी होता है इन्सान के साथ जब वो स्वयं को भूल जाता है तभी तो अजय कहते हैं अपना होना छोड़ दिया मैंने एक इश्क की खुमारी तारी है तभी तो अगर तुम होते , तुझमे खो जाऊँ सरीखी दुनिया ना बसाते, ये मोहब्बत के फलसफे यूँ ही ना गढ़ते , जिसने प्रीत का पानी पीया हो उसे भला क्या भूख ,प्यास , नींद लग सकती है वो तो अपनी मोहब्बत की कस्तूरी में ही डूबा रहता है .
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इस बार तबियत सही नही होने के कारण इतनी देर हो गयी और अब जाकर पूरी तरह कस्तूरी को पढ पायी और अपने विचार लिख पायी । सभी इंतज़ार मे थे और पूछ रहे थे कि आप कब लिखेंगी मगर सर्वाइकल की वजह से ज्यादा देर कम्प्यूटर पर काम नही कर पाती सिर्फ़ पढती ज्यादा हूँ आजकल और लिखती कम हूँ इसलिये सबकी पोस्ट पढ लेती हूँ मगर कमेंट कम ही करती हूँ जितना सम्भव हो पाता है उम्मीद है आप सब निराश नही होंगे अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की है अपने विचारों से आप सबको अवगत कराने की ………तो चलिये मेरे साथ कस्तूरी के सफ़र पर …………
मैं कस्तूरी हूँ ..........कस्तूरी वो ही जो अपनी सुगंध से सारे वातावरण को महकाती है , जिसे मृग अपनी कुंडली में लिए खोजता फिरता है मगर हाथ नहीं आती . मेरी सुगंध से मदहोश होती फिजा ना जाने कितने ही रूप अपने में समेट लेती है और फिर एक एक करके अपने आँचल से बाहर निकालती रहती है और एक मनमोहक सुरम्य वातावरण हर पल ह्रदयों को उल्लसित प्रफुल्लित करता रहता है तभी तो देखो मेरे आँगन की पहली फुहार में कौन भीग रहा है ........
ये हैं अजय देवगिरे जो प्रेम की बयार में ऐसे बह गए हैं कि उन्हें चारों तरफ सिर्फ तू ही तू है नज़र आती , तो कभी जाने वो किधर है ढूंढते फिरते हैं ये आलम तभी होता है इन्सान के साथ जब वो स्वयं को भूल जाता है तभी तो अजय कहते हैं अपना होना छोड़ दिया मैंने एक इश्क की खुमारी तारी है तभी तो अगर तुम होते , तुझमे खो जाऊँ सरीखी दुनिया ना बसाते, ये मोहब्बत के फलसफे यूँ ही ना गढ़ते , जिसने प्रीत का पानी पीया हो उसे भला क्या भूख ,प्यास , नींद लग सकती है वो तो अपनी मोहब्बत की कस्तूरी में ही डूबा रहता है .
इधर अमित आनंद पाण्डेय ने अपनी कस्तूरी से सबके कान खड़े कर दिए हैं
और अपने बंद तभी तो कह रहे हैं मुझे तो सुनना भी नहीं आता जब ना सुनकर
इतना सुन लेते हैं तो गर सुनना आता तो क्या करते ? माँ की ममता की कस्तूरी
में देखो तो कैसे भीग गए हैं कि यादों के सावन बिन मौसम बरस गए हैं तभी तो ठण्ड आने वाली है और आज की बारिश में छुपे डर ने ख्यालों पर धुंध का साया फहरा दिया है तभी तो उस शाम के धुंधलके में यादों की मिटटी सिर्फ महक रही है मगर रीते हाथों में क्योंकि नया मेहमान अपने साथ लेकर आ रहा है वो ही पीढ़ियों की दी हुई परिपाटी जो अपना रंग कभी नहीं बदलती और देहरादून से लौटते हुए एक कसक आज भी छटपटा रही है ना जाने किस खोज में कस्तूरी मृग बनी हुई है .
देख लो मेरी कस्तूरी के रंगमच पर आनंद द्विवेदी की हमारी दुनिया कैसे अपने रंग बिखेर रही है तभी तो नाटक के पात्र स्वयं को जीवंत करने के लिए उत्सुक हैं प्रेम की परिधि में कैद होकर और प्रेम की सुवासित महक में जब हरसिंगार की महक अपना रंग उँडेलती है तो वजूद समाधिस्थ हो जाते हैं और प्रेम खुदा तभी तो प्रेम की आखिर कैद की मुन्तजिर हो जाती है रूह जहाँ दो का अस्तित्व एक में समाहित हो जाता है और उसी के इंतज़ार की शाम को कैद करने की कवायद कब कस्तूरी बन होशोहवास पर छा जाती है और प्रेम की यात्रा अन्दर की तरफ शुरू पता ही नहीं चलता .
मेरी कस्तूरी से सुवासित कुमार राहुल तिवारी भी हैं तभी तो आनंद विभोर हैं ये सोचकर कि सिर्फ मेरे बन कर मेरे घर कृष्ण आये इस सोच में सराबोर राहुल को चिंता नहीं है कल की तभी तो आज में जी रहे हैं और कह रहे हैं कल हो ना हो क्योंकि पुराने पेड़ पर नए पत्ते तो आने ही हैं फिर चिंता कैसी ये तो प्रकृति का अटूट नियम है तो इससे भागना कैसा ? जो आज नया है कल पुराना होना ही है इस तथ्य को रेखांकित करते प्रकृति से तारतम्य बैठा रहे हैं और प्रकृति और हम की परिभाषा समझा रहे हैं कि क्यों नहीं हम जीना सीखते अपने आस पास बिखरे प्रकृति के सौंदर्य से कितना फर्क है उनमे और हम में और उनकी यही कोशिश दे रही है जीने को ऊर्जा , एक संबल , एक राह तभी तो चाँद ने पूछा बादल से रात के बाद क्या होगा और उस क्या का उत्तर खोजता राहुल का मन कस्तूरीमृग बन गया जो खोज रहा है निरंतर अपने अन्दर बहती कस्तूरी को ..
इधर गुंजन अग्रवाल प्रेम की कस्तूरी में भीगी प्रेम के अंतर को समझने का अथक प्रयास कर रही हैं और इस सवाल में उलझी हैं कि उसके और हमारे प्रेम में ये अंतर कैसा ? बात तो सही है प्रेम ना जाने जात बिरादरी उसके तो बस चाहत होती है , एक गूँज होती है , एक पुकार होती है तभी तो शब्द शब्द हो तुम (मैं और मेरा मन ) कहते कहते कब मन की वीणा गुनगुनाने लगी और ये गीत गाने लगी सुन पगली , कब्बी इश्क ना करना क्योंकि इश्क की गलियों में तबस्सुम नहीं खिला करते ज़िन्दगी धुआं धुंआ होने लगती है तभी तो कभी कभी प्रेमी मन कह उठता है सुनो कई दिन से मन है , एक चरस वाली सिगरेट पीने का तो कभी बिल्कुल बच्चा बन जाता है मन और कहता है मन है आज फिर , नन्हे पंखों वाली बच्ची बन जाने का जिसमे छुपी है एक भीगी सी तस्वीर जो मोहब्बत की ताबीर गढ़ रही है , इंतज़ार के बोनसाई बुन रही है क्योंकि कदम्ब होना आसान नहीं होता तभी तो मैं बोनसाई हूँ , कदम्ब नहीं कहते कहते कब अपनी सखी की पीड़ा ने व्यथित कर दिया और लिख डाली एक पाती पांचाली के नाम और भिगो दिया सारा आलम अपनी कस्तूरी में जो बस मन के हर कोने को सुवासित करती है मगर मिलती नहीं
गुरमीत सिंह अपनी कस्तूरी की भीनी भीनी सुगंध बिखेरते दिल पर ही चोट कर बैठे तभी तो कह रहे हैं यादों को कितना ही सहेज लो मगर कागज़ के टुकड़ों के दिल नहीं होते और दिल है कि मानता नहीं तभी तो मरीचिका में भटक रहे हैं अजनबी बन और आइनों से डरने लगे हैं क्योंकि कभी कभी कुछ ख्याल ही दिल को छू जाते हैं काश इससे आगे जहाँ और भी होता जहाँ बंदगी होती , दुआ कबूल होती फिर चाहे दो लम्हे में ही कुछ बातें होतीं मगर दिल की एक हसरत तो निकल जाती .
जैस्बी गुरजीत सिंह इंतज़ार की पांखों पर सपने सजाये तेरे साथ गुजारे पल की फेहरिस्त बनाये मोहब्बत के हिसाब में मशगूल ना जाने कब और कैसे मैंने पाला है इक गम शायद भूल गए थे मोहब्बत का दूसरा नाम गम ही तो है , दर्द ही तो है तो फिर इश्क का घूँट पीने से डर कैसा कुछ कतरे तो समेटने ही होंगे करनी होगी इबादत तभी तो कोई समझेगा मेरी मजबूरियां और इन मजबूरियों की अधूरी दास्ताँ और फिर वो एक ख्वाब बन सज जाना चाहती है आँखों के झुरमुटों में ताकि ताकि सुबह सवेरे तेरे सिरहाने सिर्फ उसके बन कर आऊँ और ठहर जाऊँ मैं , तेरे अनलिखे ख़त सा तेरी यादों की चिलमन में और मेरी मोहब्बत की कस्तूरी फिर ना ढूंढें कोई कोना रीता सा ।
इच्छा और शक्ति के संघर्ष में रत वंदना सिंह का स्वगत प्रलाप मौन की वेदना को परिलक्षित करता मन को दिशा दे रहा है और कह रहा है सम्हल रे मन सम्हल क्योंकि निज स्वार्थ से बढ़कर और कोई तम नहीं फिर अपने मन में छुपाये तूफानों का सागर कब जीवन में उफान ला दे पता नहीं चलता तभी तो अकेली राह पर जाता आदमी कब लौटने लगे अपने विषादों , अवसादो के साथ इसलिए तू बन श्रेष्ठ कृति मानव ताकि जन मानस के पटल पर तेरी स्मृति हमेशा याद आये और तू ख्वाब नहीं हकीकत बन जाये शायद यूँ माँ का क़र्ज़ उतर जाए .
नीलिमा शर्मा नई नवेली के इंतज़ार की कस्तूरी को महकाती संबोधन पर आकर रुक जाती हैं और सोचती हैं कि आखिर उन्हें संबोधन किया दिया जाये आप, तुम , तू या फिर औपचारिकता से परे निभाया जाये रिश्तों को क्योंकि ये हमारी ज़िन्दगी है इसे कैसे व्यतीत करना है ये हम पर निर्भर करता है . यथार्थ और पलायन में से कौन सी दिशा अपनानी हैं , किस राह पर चलना है क्योंकि किसी राह चलो लोग कहते हैं अपनी अपनी बातें मगर तय हमें करना है मैं देखूं किसे और कैसे तभी तो मिलेगी नयी दिशा और दशा और होगा कविता का जन्म तो फिर अब इंतज़ार किस बात का ..........बढ़ चलो मंजिल दूर नहीं कदम दर कदम ।
नीलम पुरी का प्यासा मन कैसे हिलोर ले रहा है और कह रहा है अब रोऊँ जार जार तो चुप होने के लिए मुझसे मत कहना क्योंकि मेरा तो जो भी कदम है वो तेरी राह में है मेरी सांस , मेरी धड़कन , मेरे लफ्ज़ सब तुम्हारे लिए ही तो हैं ऐसे में कुछ अनकही बातें कहने का मन है जिसे गर तुम पढ़ लो तो तुम्हारी रूठी रूठी सी प्रियतमा मान जाए और दिल की हर हसरत निकल जाए . ना रहें हम लफ़्ज़ों के मोहताज़ क्योंकि मोहब्बत लफ़्ज़ों की मोहताज नहीं होती जहाँ दिल की बातें सिर्फ दिल से हो जाती हैं वो चाहे मेरी हों या तुम्हारी क्योंकि प्यार में डूबे पंछियों के परवाज़ को कौन रोक पाया है वहाँ तो सिर्फ निगाहों में ही कमाल समाया है फिर भी कभी कभी इज़हार के लिए शब्द कहाँ से लाते हो ये मन पूछ ही लेता है अगर हो कोई जवाब तो देना ......
सत्य की बलि वेदी पर सिंकती पल्लवी सक्सेना की आस्था और कर्त्तव्य प्यार पर अधिकार को तरजीह देता है तभी तो सत्यम शिवम् सुन्दरम अपना महत्त्व रखता है क्योंकि जीवन रुपी अग्नि में होम तो होना है सब कुछ मगर कुछ बचना है तो उसके लिए भावनाओं की राख को भी गर समेट लिया जाए तो अस्तित्व प्रश्न चिन्ह बनकर नहीं रह जाता और उन यादों में भीगा मन अपने रेगिस्तान में चश्मा तलाश कर ही लेता है तृप्ति के लिए क्योंकि सागर एक , रूप अनेक हों फिर भी अपनी ख़ामोशी के सागर में कुछ तो मोती मिल ही जाते हैं जो आन्तरिक कोलाहल में एक मचलती लहर की भांति अपना वजूद स्थापित कर जाते हैं ख़ामोशी के साथ फिर चाहे उसे दुनिया बेवफाई नाम ही क्यों ना दे दे
माँ बेटी के रिश्ते को परिभाषित करती बोधमिता की कस्तूरी कैसे मनो को सुवासित कर रही है तभी तो माँ को सृजनकर्ता नाम मिला और उसकी ममता का ना कहीं कोई ओर छोर मिला तभी तो बिटिया को माँ का ही स्वरुप मिला अपनी आकांक्षाओं को कितनी संजीदगी से कह रही है बेटी और फिर माँ से बोली बेटी मुझे चाहे कोई खुदा मिले ना मिले मैंने तो खुदा तुम में देख लिया माँ अब और क्या चाहिए . तो दूसरी तरफ आज के युवावर्ग की चिंता से ग्रसित बोधमिता युवा के जीवन को परिलक्षित कर रही हैं , उसकी उलझन और चाहतों की कहानी कह रही हैं तो दूसरी तरफ एक बीवी के दर्द को बयां कर रही हैं जो कुछ नहीं चाहती सिवाय इतने कि उसे हो गर्व उसकी ब्याहता होने पर ........विविध रंगों से सजी रंगोली में कस्तूरी की महक कितनी सुवासित कर रही है इसे तो महकने वाला ही बता सकता है
मीनाक्षी मिश्रा तिवारी ने जीवन में मुस्कराहट के पलाश कुछ ऐसे खिलाये की प्रेम की पंखुडियां खिलने लगीं मगर आखिर कब तक क्योंकि गर प्रेम होगा तो विरह का अंकुर भी जरूर फूटेगा और करेगा जीवन के गणित का समाकलन , वो एक दिन तो कस्तूरी महकेगी ही .
मुकेश गिरी गोस्वामी की कस्तूरी देखिये तो कैसे उन्हें जीने के रंग सिखाती है तभी तो कह रहे हैं वो मुझे जीना सिखाती हो तुम और डूब जाते हैं फिर आत्मचिंतन में कि कहाँ से कहाँ पहुँच गए हम कहीं से तो शुरुआत करें क्योंकि जाने क्यों वीरानी सी लगती है ये दुनिया उन्हें कोई तो कारण होंगा यूँ ही तो नहीं असमंजस में होंगे . आत्मसंतुष्टि के लिए श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती अगर तुम होंतीं जीवन में क्योंकि अब तलक तेरी खुशबू आती है तभी तो तुमसे कभी रोया ना गया कहते कहते मुकेश अपनी कस्तूरी बिखरा रहे हैं .
रजत श्रीवास्तव मौन के गह्वर में संवाद की परंपरा को निभाते बस यूँ ही ऐसे ही यादों की खुरचन खुरच रहे हैं
क्योंकि तुम्हारे रहते , मैं तुमसे अलग नहीं, देख ले कहते कहते अपने प्रेम की कस्तूरी अपनी प्रियतमा को भेंट कर रहे हैं .
कस्तूरी है तो बिखरेगी ही फिजाओं में और महकाएगी हर कोना तभी तो रश्मि प्रभा जी के देखने का अंदाज़ ही जुदा है सबसे जो सोचती हैं परेशानियाँ तो दरअसल समझदारी में हैं जो जीवन को एक नयी सोच देती है साथ ही हरिनाम को भी नहीं भूलीं हैं फिर चाहे कितना ही मुश्किल है सिद्धांतों आदर्शों की गली में चलना क्योंकि नरभक्षियों के जमघट से बाहर निकलना आसान नहीं होता और कुछ तो मन में ही छुपे होते हैं उनसे निजात कोई कैसे पाए तभी तो प्रश्न दाग दिया ए तुम ! एक नाम के सिवा क्या कुछ और बन पाए अपने अहम् से उठ पाए हम का जामा पहन पाए क्योंकि एक उम्र बीत गयी लड़ते लड़ते , चलते चलते और हर बार क्यूं करूँ मैं ही समझौते एक बार तुम भी तो गुजर कर देखो उस आग से ......
राहुल सिंह अपनी कस्तूरी को भारत दर्शन करते बिखरा रहे हैं मगर अब भी कुछ बाकी है जिसकी फिक्र में फिक्रमंद हैं क्योंकि दासता से मुक्ति आज भी कहाँ मिली हैं तभी तो जो लक्ष्य है वो अधूरा है और असफल कार्य को कौन नमन करता है जब तक कि ना ऐसा दिन आता है जहाँ जीने की मर्यादा हो सम्मान के साथ क्योंकि अब नहीं चाहिए किसी की दया अपना हक़ चाहिए अपना सम्मान चाहिए बस ऐसा वरदान मिले यही तो है वो इच्छा जहाँ मोक्ष की भी चाह नहीं क्योंकि रिश्तों की पीड़ा दुनिया नहीं समझती तभी तो व्याकुल मन का भंवर इंतज़ार में हैं कब आएगी शाम सुनहरी तो कैसे ना कस्तूरी का सिन्दूरी रंग बिखरेगा जन मानस के पटल पर .
ख़ामोशी को सुना मैंने आखिर कैसे इश्क के पंखों पर सवार होकर रिया ने सुन ली ख़ामोशी की आवाज़ क्योंकि वो हाथों का मिलना ही सब कुछ कह गया शायद लिख ना पाऊंगी क्योंकि कुछ बातें शब्दों से परे जो होती हैं तो दूसरी तरफ ये मन की गलियाँ कितनी गहन होती हैं जो पीड़ा का दिग्दर्शन यूँ करती हैं कि वृद्धावस्था अभिशाप या बीमारी क्या है इसी चिंतन में डूब गयी हैं .
इसी क्रम में मेरी कस्तूरी ने भी अपने पाँव पसारे हैं जहाँ इंतज़ार की सिलाई नहीं होती क्योंकि आस के पंछी ने अब ओसारे पर दाना चुगना बंद कर दिया है तभी तो यूँ ही डिग्रियां नहीं मिलतीं मोहब्बत की एक आग से गुज़रना पड़ता है , अध्ययन और शोधों के ग्रन्थ लिखने और पढने के बाद ही माँ !मुझे तुझमे इक बच्चा नज़र आता है शायद तभी बूढा और बच्चा बराबर गिना जाता है मगर इसमें भी सबका अपना दृष्टिकोण होता है क्योंकि अच्छाई या बुराई तो देखने वाले की नज़र पर निर्भर करती हैं फिर हर चीज की कीमत होती है चाहे वो सफलता के प्रतिमान ही क्यों ना हों चुकाने तो पड़ते ही हैं फिर भी कुछ ना कुछ बच ही जाता है जो बचता है शून्यता के बाद भी उसी को समेटना होगा नहीं तो अछूत हूँ मैं आज ये बात जान लेना क्योंकि वक्त ने बदल दिया है मेरा मिजाज़ .
वाणी शर्मा की कस्तूरी के रंग में सबसे पहले दस्तक दे दी पतझड़ के पहरेदार ने क्योंकि प्रेम के स्पंदनों ने हमें जितना पोषित किया उतने ही हम शोषित हुए और कोई है जो नहीं चाहता कि हम पोषित रहें तभी तो कतरा कतरा प्रेम खुरचा जा रहा है आक्रोश और विद्रोह , कुंठित सोच हावी हो रही है तभी तो गर्भ हत्या का अपराधबोध ग्रसित नहीं करता फिर चाहे उसके लिए किसी की भी बलि दे दी जाए चाहे माँ हो ये बेटी और इस दर्द को एक बेटी ही समझ सकती है जो माँ के अस्तित्व को अपनी आँखों में संजोती है जहाँ उसे माँ में ही पिता का अस्तित्व नज़र आता है और कह उठती है मैं और क्या कर सकती हूँ माँ अपनी विवशता से दो चार होती बेटी के भावों को संजीदगी से संजोना भी काफी है क्योंकि लिख रहा है कहीं कोई प्रेम पत्र जो सुवासित करेगा मन के आँगन को जिसकी महक से महकेगा हर आँगन क्योंकि मेरे घर की खुली खिड़की से फिजाओं में बिखर जाएगी उसकी खुशबू इतनी तो उम्मीद जरूर है .
मेरी कस्तूरी में केवल गड्ढे भावनाओं के ही नहीं हैं क्योंकि उम्र गुज़र गई इन्हें भरते भरते कह रही हैं शिखा वार्ष्णेय जी अब मोहब्बत को टांग दिया है खूँटी पर पुरानी कमीज की तरह और सहेज लिया है प्रेम अपने अंतस में क्योंकि इस धुआं धुआं ज़िन्दगी का क्या भरोसा कब द्वन्द में फँसा दे और जब मौन प्रखर हो तब फिर एक नयी सौगात रख दे कसौटी की और मैं ढूंढूं अपने उस अस्तित्व को जो आज बेजान सा निरीह सा पड़ा है उस कोने में जहाँ भावनाएं अब नहीं सहेजतीं उसे, बन गया है रद्दी पन्ना क्योंकि तू और मैं हमेशा तू और मैं ही रहे कभी हम ना बन सके .
हरविंदर सिंह सलूजा आज भी जी रहे हैं कुछ पन्ने ज़िन्दगी के जिनमे अहसास उसकी खुशबू का समेटा हुआ है तभी तो गहरा लाल रंग गुलाब का प्रेम का प्रतीक बना है ऐसे में कोई कैसे कोई प्रेम कहानी लिख सकता है तभी तो वो कह रहे हैं कैसे उसे मैं दीवानी लिखूं क्योंकि मोहब्बत में कोई भी तुझसा नहीं देखा और तुझे पाने के जूनून में ज़िन्दगी को खो दिया बस यही तो चाहा ज़िन्दगी - तेरे साथ गुजरे फिर चाहे एक पल के लिए भी क्यों ना हो क्योंकि मोहब्बत में डूबी आशनाई इस इंतजार में नहीं रहती जाने कौन परी पास आएगी उसे तो मोहब्बत ही खुदा नज़र आएगी अब चाहे कोई प्यार को कितना बनते कम नहीं होता कुछ ना कुछ तो बच ही जाता है क्योंकि सबके हिस्से में कुछ आ जाये इसी आस में गुजर जाती हैं ज़िन्दगी की घड़ियाँ .
अंजू चौधरी की कस्तूरी में बुरा वक्त ९९ वें पे ख़त्म हो शून्य से फिर शुरू हो जाता है जीवन चक्र यही तो होता है क्योंकि स्वार्थमय है ये संसार कोई किसी के लिए नहीं सोचता और पुरुष तो बिल्कुल नहीं तभी तो सब ही नारी को समेट लेना चाहते हैं सिर्फ अपने लिए कोई उसके लिए कुछ क्यों नहीं करता प्रतिध्वनि मुखरित क्यों नहीं होती, ये उम्र से बड़ी एक लम्बी ख़ामोशी कितना कचोटती है कि नींद भी पायताने करवट बदलती रहती है फिर भी जीने की जिजीविषा कहने को उद्यत हो जाती है कि अभी बहुत कुछ है बाकी शायद मेरा तमाशा , मेरा ही दर्द जिसे सिर्फ प्रयोग किया गया मगर महसूसा नहीं गया फिर कैसे कस्तूरी के रंगों को समेटूं ?
मुकेश कुमार सिन्हा की स्मृतियाँ कभी डराती हैं तो कभी दुलराती हैं और जीवन को दिशा दे जाती हैं फिर भी पता नहीं क्यूँ हम खुद से ईमानदारी नहीं बरतते और नहीं पहचान पाते खुद को अपने ही आईने में फिर भी कोशिश जारी रहती है क्योंकि यूटोपिया यूँ ही नहीं मिला करता सब अंतस में ही तो सिमटा है बस देखने वाली नज़र की जरूरत होती है मगर कुछ चीजें हमने नज़रंदाज़ करनी सीख ली हैं तभी तो जो है सिर्फ कागज़ी हैं हकीकत में तो हम सभी पढ़ रहे हैं एक नदी का मरसिया खुद को दिखाने के लिए खैरख्वाह मगर क्या वास्तव में हैं ऐसा ? क्या हमने सीखा अमन-ओ-चैन से रहना ? क्या वास्तव में हम ऐसा ही चाहते हैं ? ये हैं हमारे दोगले चरित्र जिसका असर सब तरफ पड़ रहा है तभी तो नहीं देख पाते हम आतंकवाद का राजनितिक चेहरा और नहीं पढ़ पाते राजनितिक भाषा का आतंकवाद .
देख लो मेरी कस्तूरी के रंगमच पर आनंद द्विवेदी की हमारी दुनिया कैसे अपने रंग बिखेर रही है तभी तो नाटक के पात्र स्वयं को जीवंत करने के लिए उत्सुक हैं प्रेम की परिधि में कैद होकर और प्रेम की सुवासित महक में जब हरसिंगार की महक अपना रंग उँडेलती है तो वजूद समाधिस्थ हो जाते हैं और प्रेम खुदा तभी तो प्रेम की आखिर कैद की मुन्तजिर हो जाती है रूह जहाँ दो का अस्तित्व एक में समाहित हो जाता है और उसी के इंतज़ार की शाम को कैद करने की कवायद कब कस्तूरी बन होशोहवास पर छा जाती है और प्रेम की यात्रा अन्दर की तरफ शुरू पता ही नहीं चलता .
मेरी कस्तूरी से सुवासित कुमार राहुल तिवारी भी हैं तभी तो आनंद विभोर हैं ये सोचकर कि सिर्फ मेरे बन कर मेरे घर कृष्ण आये इस सोच में सराबोर राहुल को चिंता नहीं है कल की तभी तो आज में जी रहे हैं और कह रहे हैं कल हो ना हो क्योंकि पुराने पेड़ पर नए पत्ते तो आने ही हैं फिर चिंता कैसी ये तो प्रकृति का अटूट नियम है तो इससे भागना कैसा ? जो आज नया है कल पुराना होना ही है इस तथ्य को रेखांकित करते प्रकृति से तारतम्य बैठा रहे हैं और प्रकृति और हम की परिभाषा समझा रहे हैं कि क्यों नहीं हम जीना सीखते अपने आस पास बिखरे प्रकृति के सौंदर्य से कितना फर्क है उनमे और हम में और उनकी यही कोशिश दे रही है जीने को ऊर्जा , एक संबल , एक राह तभी तो चाँद ने पूछा बादल से रात के बाद क्या होगा और उस क्या का उत्तर खोजता राहुल का मन कस्तूरीमृग बन गया जो खोज रहा है निरंतर अपने अन्दर बहती कस्तूरी को ..
इधर गुंजन अग्रवाल प्रेम की कस्तूरी में भीगी प्रेम के अंतर को समझने का अथक प्रयास कर रही हैं और इस सवाल में उलझी हैं कि उसके और हमारे प्रेम में ये अंतर कैसा ? बात तो सही है प्रेम ना जाने जात बिरादरी उसके तो बस चाहत होती है , एक गूँज होती है , एक पुकार होती है तभी तो शब्द शब्द हो तुम (मैं और मेरा मन ) कहते कहते कब मन की वीणा गुनगुनाने लगी और ये गीत गाने लगी सुन पगली , कब्बी इश्क ना करना क्योंकि इश्क की गलियों में तबस्सुम नहीं खिला करते ज़िन्दगी धुआं धुंआ होने लगती है तभी तो कभी कभी प्रेमी मन कह उठता है सुनो कई दिन से मन है , एक चरस वाली सिगरेट पीने का तो कभी बिल्कुल बच्चा बन जाता है मन और कहता है मन है आज फिर , नन्हे पंखों वाली बच्ची बन जाने का जिसमे छुपी है एक भीगी सी तस्वीर जो मोहब्बत की ताबीर गढ़ रही है , इंतज़ार के बोनसाई बुन रही है क्योंकि कदम्ब होना आसान नहीं होता तभी तो मैं बोनसाई हूँ , कदम्ब नहीं कहते कहते कब अपनी सखी की पीड़ा ने व्यथित कर दिया और लिख डाली एक पाती पांचाली के नाम और भिगो दिया सारा आलम अपनी कस्तूरी में जो बस मन के हर कोने को सुवासित करती है मगर मिलती नहीं
गुरमीत सिंह अपनी कस्तूरी की भीनी भीनी सुगंध बिखेरते दिल पर ही चोट कर बैठे तभी तो कह रहे हैं यादों को कितना ही सहेज लो मगर कागज़ के टुकड़ों के दिल नहीं होते और दिल है कि मानता नहीं तभी तो मरीचिका में भटक रहे हैं अजनबी बन और आइनों से डरने लगे हैं क्योंकि कभी कभी कुछ ख्याल ही दिल को छू जाते हैं काश इससे आगे जहाँ और भी होता जहाँ बंदगी होती , दुआ कबूल होती फिर चाहे दो लम्हे में ही कुछ बातें होतीं मगर दिल की एक हसरत तो निकल जाती .
जैस्बी गुरजीत सिंह इंतज़ार की पांखों पर सपने सजाये तेरे साथ गुजारे पल की फेहरिस्त बनाये मोहब्बत के हिसाब में मशगूल ना जाने कब और कैसे मैंने पाला है इक गम शायद भूल गए थे मोहब्बत का दूसरा नाम गम ही तो है , दर्द ही तो है तो फिर इश्क का घूँट पीने से डर कैसा कुछ कतरे तो समेटने ही होंगे करनी होगी इबादत तभी तो कोई समझेगा मेरी मजबूरियां और इन मजबूरियों की अधूरी दास्ताँ और फिर वो एक ख्वाब बन सज जाना चाहती है आँखों के झुरमुटों में ताकि ताकि सुबह सवेरे तेरे सिरहाने सिर्फ उसके बन कर आऊँ और ठहर जाऊँ मैं , तेरे अनलिखे ख़त सा तेरी यादों की चिलमन में और मेरी मोहब्बत की कस्तूरी फिर ना ढूंढें कोई कोना रीता सा ।
इच्छा और शक्ति के संघर्ष में रत वंदना सिंह का स्वगत प्रलाप मौन की वेदना को परिलक्षित करता मन को दिशा दे रहा है और कह रहा है सम्हल रे मन सम्हल क्योंकि निज स्वार्थ से बढ़कर और कोई तम नहीं फिर अपने मन में छुपाये तूफानों का सागर कब जीवन में उफान ला दे पता नहीं चलता तभी तो अकेली राह पर जाता आदमी कब लौटने लगे अपने विषादों , अवसादो के साथ इसलिए तू बन श्रेष्ठ कृति मानव ताकि जन मानस के पटल पर तेरी स्मृति हमेशा याद आये और तू ख्वाब नहीं हकीकत बन जाये शायद यूँ माँ का क़र्ज़ उतर जाए .
नीलिमा शर्मा नई नवेली के इंतज़ार की कस्तूरी को महकाती संबोधन पर आकर रुक जाती हैं और सोचती हैं कि आखिर उन्हें संबोधन किया दिया जाये आप, तुम , तू या फिर औपचारिकता से परे निभाया जाये रिश्तों को क्योंकि ये हमारी ज़िन्दगी है इसे कैसे व्यतीत करना है ये हम पर निर्भर करता है . यथार्थ और पलायन में से कौन सी दिशा अपनानी हैं , किस राह पर चलना है क्योंकि किसी राह चलो लोग कहते हैं अपनी अपनी बातें मगर तय हमें करना है मैं देखूं किसे और कैसे तभी तो मिलेगी नयी दिशा और दशा और होगा कविता का जन्म तो फिर अब इंतज़ार किस बात का ..........बढ़ चलो मंजिल दूर नहीं कदम दर कदम ।
नीलम पुरी का प्यासा मन कैसे हिलोर ले रहा है और कह रहा है अब रोऊँ जार जार तो चुप होने के लिए मुझसे मत कहना क्योंकि मेरा तो जो भी कदम है वो तेरी राह में है मेरी सांस , मेरी धड़कन , मेरे लफ्ज़ सब तुम्हारे लिए ही तो हैं ऐसे में कुछ अनकही बातें कहने का मन है जिसे गर तुम पढ़ लो तो तुम्हारी रूठी रूठी सी प्रियतमा मान जाए और दिल की हर हसरत निकल जाए . ना रहें हम लफ़्ज़ों के मोहताज़ क्योंकि मोहब्बत लफ़्ज़ों की मोहताज नहीं होती जहाँ दिल की बातें सिर्फ दिल से हो जाती हैं वो चाहे मेरी हों या तुम्हारी क्योंकि प्यार में डूबे पंछियों के परवाज़ को कौन रोक पाया है वहाँ तो सिर्फ निगाहों में ही कमाल समाया है फिर भी कभी कभी इज़हार के लिए शब्द कहाँ से लाते हो ये मन पूछ ही लेता है अगर हो कोई जवाब तो देना ......
सत्य की बलि वेदी पर सिंकती पल्लवी सक्सेना की आस्था और कर्त्तव्य प्यार पर अधिकार को तरजीह देता है तभी तो सत्यम शिवम् सुन्दरम अपना महत्त्व रखता है क्योंकि जीवन रुपी अग्नि में होम तो होना है सब कुछ मगर कुछ बचना है तो उसके लिए भावनाओं की राख को भी गर समेट लिया जाए तो अस्तित्व प्रश्न चिन्ह बनकर नहीं रह जाता और उन यादों में भीगा मन अपने रेगिस्तान में चश्मा तलाश कर ही लेता है तृप्ति के लिए क्योंकि सागर एक , रूप अनेक हों फिर भी अपनी ख़ामोशी के सागर में कुछ तो मोती मिल ही जाते हैं जो आन्तरिक कोलाहल में एक मचलती लहर की भांति अपना वजूद स्थापित कर जाते हैं ख़ामोशी के साथ फिर चाहे उसे दुनिया बेवफाई नाम ही क्यों ना दे दे
माँ बेटी के रिश्ते को परिभाषित करती बोधमिता की कस्तूरी कैसे मनो को सुवासित कर रही है तभी तो माँ को सृजनकर्ता नाम मिला और उसकी ममता का ना कहीं कोई ओर छोर मिला तभी तो बिटिया को माँ का ही स्वरुप मिला अपनी आकांक्षाओं को कितनी संजीदगी से कह रही है बेटी और फिर माँ से बोली बेटी मुझे चाहे कोई खुदा मिले ना मिले मैंने तो खुदा तुम में देख लिया माँ अब और क्या चाहिए . तो दूसरी तरफ आज के युवावर्ग की चिंता से ग्रसित बोधमिता युवा के जीवन को परिलक्षित कर रही हैं , उसकी उलझन और चाहतों की कहानी कह रही हैं तो दूसरी तरफ एक बीवी के दर्द को बयां कर रही हैं जो कुछ नहीं चाहती सिवाय इतने कि उसे हो गर्व उसकी ब्याहता होने पर ........विविध रंगों से सजी रंगोली में कस्तूरी की महक कितनी सुवासित कर रही है इसे तो महकने वाला ही बता सकता है
मीनाक्षी मिश्रा तिवारी ने जीवन में मुस्कराहट के पलाश कुछ ऐसे खिलाये की प्रेम की पंखुडियां खिलने लगीं मगर आखिर कब तक क्योंकि गर प्रेम होगा तो विरह का अंकुर भी जरूर फूटेगा और करेगा जीवन के गणित का समाकलन , वो एक दिन तो कस्तूरी महकेगी ही .
मुकेश गिरी गोस्वामी की कस्तूरी देखिये तो कैसे उन्हें जीने के रंग सिखाती है तभी तो कह रहे हैं वो मुझे जीना सिखाती हो तुम और डूब जाते हैं फिर आत्मचिंतन में कि कहाँ से कहाँ पहुँच गए हम कहीं से तो शुरुआत करें क्योंकि जाने क्यों वीरानी सी लगती है ये दुनिया उन्हें कोई तो कारण होंगा यूँ ही तो नहीं असमंजस में होंगे . आत्मसंतुष्टि के लिए श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती अगर तुम होंतीं जीवन में क्योंकि अब तलक तेरी खुशबू आती है तभी तो तुमसे कभी रोया ना गया कहते कहते मुकेश अपनी कस्तूरी बिखरा रहे हैं .
रजत श्रीवास्तव मौन के गह्वर में संवाद की परंपरा को निभाते बस यूँ ही ऐसे ही यादों की खुरचन खुरच रहे हैं
क्योंकि तुम्हारे रहते , मैं तुमसे अलग नहीं, देख ले कहते कहते अपने प्रेम की कस्तूरी अपनी प्रियतमा को भेंट कर रहे हैं .
कस्तूरी है तो बिखरेगी ही फिजाओं में और महकाएगी हर कोना तभी तो रश्मि प्रभा जी के देखने का अंदाज़ ही जुदा है सबसे जो सोचती हैं परेशानियाँ तो दरअसल समझदारी में हैं जो जीवन को एक नयी सोच देती है साथ ही हरिनाम को भी नहीं भूलीं हैं फिर चाहे कितना ही मुश्किल है सिद्धांतों आदर्शों की गली में चलना क्योंकि नरभक्षियों के जमघट से बाहर निकलना आसान नहीं होता और कुछ तो मन में ही छुपे होते हैं उनसे निजात कोई कैसे पाए तभी तो प्रश्न दाग दिया ए तुम ! एक नाम के सिवा क्या कुछ और बन पाए अपने अहम् से उठ पाए हम का जामा पहन पाए क्योंकि एक उम्र बीत गयी लड़ते लड़ते , चलते चलते और हर बार क्यूं करूँ मैं ही समझौते एक बार तुम भी तो गुजर कर देखो उस आग से ......
राहुल सिंह अपनी कस्तूरी को भारत दर्शन करते बिखरा रहे हैं मगर अब भी कुछ बाकी है जिसकी फिक्र में फिक्रमंद हैं क्योंकि दासता से मुक्ति आज भी कहाँ मिली हैं तभी तो जो लक्ष्य है वो अधूरा है और असफल कार्य को कौन नमन करता है जब तक कि ना ऐसा दिन आता है जहाँ जीने की मर्यादा हो सम्मान के साथ क्योंकि अब नहीं चाहिए किसी की दया अपना हक़ चाहिए अपना सम्मान चाहिए बस ऐसा वरदान मिले यही तो है वो इच्छा जहाँ मोक्ष की भी चाह नहीं क्योंकि रिश्तों की पीड़ा दुनिया नहीं समझती तभी तो व्याकुल मन का भंवर इंतज़ार में हैं कब आएगी शाम सुनहरी तो कैसे ना कस्तूरी का सिन्दूरी रंग बिखरेगा जन मानस के पटल पर .
ख़ामोशी को सुना मैंने आखिर कैसे इश्क के पंखों पर सवार होकर रिया ने सुन ली ख़ामोशी की आवाज़ क्योंकि वो हाथों का मिलना ही सब कुछ कह गया शायद लिख ना पाऊंगी क्योंकि कुछ बातें शब्दों से परे जो होती हैं तो दूसरी तरफ ये मन की गलियाँ कितनी गहन होती हैं जो पीड़ा का दिग्दर्शन यूँ करती हैं कि वृद्धावस्था अभिशाप या बीमारी क्या है इसी चिंतन में डूब गयी हैं .
इसी क्रम में मेरी कस्तूरी ने भी अपने पाँव पसारे हैं जहाँ इंतज़ार की सिलाई नहीं होती क्योंकि आस के पंछी ने अब ओसारे पर दाना चुगना बंद कर दिया है तभी तो यूँ ही डिग्रियां नहीं मिलतीं मोहब्बत की एक आग से गुज़रना पड़ता है , अध्ययन और शोधों के ग्रन्थ लिखने और पढने के बाद ही माँ !मुझे तुझमे इक बच्चा नज़र आता है शायद तभी बूढा और बच्चा बराबर गिना जाता है मगर इसमें भी सबका अपना दृष्टिकोण होता है क्योंकि अच्छाई या बुराई तो देखने वाले की नज़र पर निर्भर करती हैं फिर हर चीज की कीमत होती है चाहे वो सफलता के प्रतिमान ही क्यों ना हों चुकाने तो पड़ते ही हैं फिर भी कुछ ना कुछ बच ही जाता है जो बचता है शून्यता के बाद भी उसी को समेटना होगा नहीं तो अछूत हूँ मैं आज ये बात जान लेना क्योंकि वक्त ने बदल दिया है मेरा मिजाज़ .
वाणी शर्मा की कस्तूरी के रंग में सबसे पहले दस्तक दे दी पतझड़ के पहरेदार ने क्योंकि प्रेम के स्पंदनों ने हमें जितना पोषित किया उतने ही हम शोषित हुए और कोई है जो नहीं चाहता कि हम पोषित रहें तभी तो कतरा कतरा प्रेम खुरचा जा रहा है आक्रोश और विद्रोह , कुंठित सोच हावी हो रही है तभी तो गर्भ हत्या का अपराधबोध ग्रसित नहीं करता फिर चाहे उसके लिए किसी की भी बलि दे दी जाए चाहे माँ हो ये बेटी और इस दर्द को एक बेटी ही समझ सकती है जो माँ के अस्तित्व को अपनी आँखों में संजोती है जहाँ उसे माँ में ही पिता का अस्तित्व नज़र आता है और कह उठती है मैं और क्या कर सकती हूँ माँ अपनी विवशता से दो चार होती बेटी के भावों को संजीदगी से संजोना भी काफी है क्योंकि लिख रहा है कहीं कोई प्रेम पत्र जो सुवासित करेगा मन के आँगन को जिसकी महक से महकेगा हर आँगन क्योंकि मेरे घर की खुली खिड़की से फिजाओं में बिखर जाएगी उसकी खुशबू इतनी तो उम्मीद जरूर है .
मेरी कस्तूरी में केवल गड्ढे भावनाओं के ही नहीं हैं क्योंकि उम्र गुज़र गई इन्हें भरते भरते कह रही हैं शिखा वार्ष्णेय जी अब मोहब्बत को टांग दिया है खूँटी पर पुरानी कमीज की तरह और सहेज लिया है प्रेम अपने अंतस में क्योंकि इस धुआं धुआं ज़िन्दगी का क्या भरोसा कब द्वन्द में फँसा दे और जब मौन प्रखर हो तब फिर एक नयी सौगात रख दे कसौटी की और मैं ढूंढूं अपने उस अस्तित्व को जो आज बेजान सा निरीह सा पड़ा है उस कोने में जहाँ भावनाएं अब नहीं सहेजतीं उसे, बन गया है रद्दी पन्ना क्योंकि तू और मैं हमेशा तू और मैं ही रहे कभी हम ना बन सके .
हरविंदर सिंह सलूजा आज भी जी रहे हैं कुछ पन्ने ज़िन्दगी के जिनमे अहसास उसकी खुशबू का समेटा हुआ है तभी तो गहरा लाल रंग गुलाब का प्रेम का प्रतीक बना है ऐसे में कोई कैसे कोई प्रेम कहानी लिख सकता है तभी तो वो कह रहे हैं कैसे उसे मैं दीवानी लिखूं क्योंकि मोहब्बत में कोई भी तुझसा नहीं देखा और तुझे पाने के जूनून में ज़िन्दगी को खो दिया बस यही तो चाहा ज़िन्दगी - तेरे साथ गुजरे फिर चाहे एक पल के लिए भी क्यों ना हो क्योंकि मोहब्बत में डूबी आशनाई इस इंतजार में नहीं रहती जाने कौन परी पास आएगी उसे तो मोहब्बत ही खुदा नज़र आएगी अब चाहे कोई प्यार को कितना बनते कम नहीं होता कुछ ना कुछ तो बच ही जाता है क्योंकि सबके हिस्से में कुछ आ जाये इसी आस में गुजर जाती हैं ज़िन्दगी की घड़ियाँ .
अंजू चौधरी की कस्तूरी में बुरा वक्त ९९ वें पे ख़त्म हो शून्य से फिर शुरू हो जाता है जीवन चक्र यही तो होता है क्योंकि स्वार्थमय है ये संसार कोई किसी के लिए नहीं सोचता और पुरुष तो बिल्कुल नहीं तभी तो सब ही नारी को समेट लेना चाहते हैं सिर्फ अपने लिए कोई उसके लिए कुछ क्यों नहीं करता प्रतिध्वनि मुखरित क्यों नहीं होती, ये उम्र से बड़ी एक लम्बी ख़ामोशी कितना कचोटती है कि नींद भी पायताने करवट बदलती रहती है फिर भी जीने की जिजीविषा कहने को उद्यत हो जाती है कि अभी बहुत कुछ है बाकी शायद मेरा तमाशा , मेरा ही दर्द जिसे सिर्फ प्रयोग किया गया मगर महसूसा नहीं गया फिर कैसे कस्तूरी के रंगों को समेटूं ?
मुकेश कुमार सिन्हा की स्मृतियाँ कभी डराती हैं तो कभी दुलराती हैं और जीवन को दिशा दे जाती हैं फिर भी पता नहीं क्यूँ हम खुद से ईमानदारी नहीं बरतते और नहीं पहचान पाते खुद को अपने ही आईने में फिर भी कोशिश जारी रहती है क्योंकि यूटोपिया यूँ ही नहीं मिला करता सब अंतस में ही तो सिमटा है बस देखने वाली नज़र की जरूरत होती है मगर कुछ चीजें हमने नज़रंदाज़ करनी सीख ली हैं तभी तो जो है सिर्फ कागज़ी हैं हकीकत में तो हम सभी पढ़ रहे हैं एक नदी का मरसिया खुद को दिखाने के लिए खैरख्वाह मगर क्या वास्तव में हैं ऐसा ? क्या हमने सीखा अमन-ओ-चैन से रहना ? क्या वास्तव में हम ऐसा ही चाहते हैं ? ये हैं हमारे दोगले चरित्र जिसका असर सब तरफ पड़ रहा है तभी तो नहीं देख पाते हम आतंकवाद का राजनितिक चेहरा और नहीं पढ़ पाते राजनितिक भाषा का आतंकवाद .
तो दोस्तों ये थी कस्तूरी के २४ मृग जो खोज रहे है अपनी अपनी
कस्तूरी को मगर शायद नहीं जानते इनकी कस्तूरी तो इनकी कलम में बसी है बस एक
बार अपने प्रवाह को अपने अन्दर की तरफ मोड़ना है फिर तो कस्तूरी में खुद
को ही भीगा पाएंगे. ये जो लाल रंग में लिखा है वो सभी कवियों की कविताओं के
शीर्षक हैं और बाकी मेरे विचार . एक सहेजने लायक किताब जिसे अंजू चौधरी और
मुकेश कुमार सिन्हा ने सम्पादित किया है जो उनका पहला प्रयास है उस लिहाज
से काफी बढ़िया काम किया गया है . अगर आप सब भी इस कस्तूरी में भीगना
चाहते हैं हिंद युग्म से संपर्क कर सकते हैं या फ्लिप्कार्ट से मँगा सकते
हैं और इस कस्तूरी की महक को अपने आँगन में सहेज सकते हैं . चलिए दोस्तों
मैं चलती हूँ फिर किसी कस्तूरी मृग को ढूँढने तब तक के लिए आप सबको इस
कस्तूरी में भीगने के लिए छोड़े जा रही हूँ.
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हे भगवान ...ये क्या कर डाला ...इतनी मेहनत और इतने प्यार से विस्तृत कस्तूरी फैला दी है आपने कि सुगंध दूर दूर तक जा रही है.अब हम कैसे समेटेंगे..
जवाब देंहटाएंसूक्ष्मता से समीक्षा की है, आप स्वयं कस्तूरी बन गई हैं
जवाब देंहटाएंविस्तृत चर्चा ...
जवाब देंहटाएंइस कस्तूरी की गंध बहुत दूर तक जाने वाली है ...
४५० पोस्ट की बहुत बहुत बधाई ...
BAHUT ACHCHHI SAMIKSHA....450 WIN POST PAR BADHAI..
जवाब देंहटाएंsaare sungandho ko ek saath ek page me samet kar paros diya...:)
जवाब देंहटाएंBahut bahut dhanyawad...!!
जान कर दुःख हुआ की आप सर्वाइकल से पीड़ित है इस वक़्त.....अपना खास ख्याल रखियेगा.....रेगुलर एकसरसाइज़ करिए......खुदा आपको सेहत नवाज़े....आमीन।
जवाब देंहटाएंइस संकलन की संपादक होने के नाते ,तुम्हारा दिल से आभार करती हूँ कि तुम इस कस्तूरी का हिस्सा हो और इसकी महक को दूर दूर तक पहुंचा रही हो ....वंदना कस्तूरी की महक को बांटने के लिए दिल से आभार
जवाब देंहटाएंकस्तूरी का सफ़र आपकी कलम से पढ़कर सहयात्रियों का परिचय पाना अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंआपके स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं
आभार
:)
जवाब देंहटाएं----
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में भी कस्तूरी का एक छोटा सा हिस्सा हूँ आपने बहुत ही खूबसूरती से इस काव्य संकलन की समीक्षा की . बहुत बहुत आभार आपका
जवाब देंहटाएंमें भी कस्तूरी का एक छोटा सा हिस्सा हूँ आपने बहुत ही खूबसूरती से इस काव्य संकलन की समीक्षा की . बहुत बहुत आभार आपका
जवाब देंहटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंमहक उठा सारा जहां.....
वंदना जी आपकी लेखनी में कौन सी रोशनाई है....
बहुत सुन्दर...
सस्नेह
अनु
४५० पोस्ट की बहुत बहुत बधाई ...
जवाब देंहटाएंखूबसूरती से इस काव्य संकलन की समीक्षा की भी ...
बहुत विस्तृत समीक्षा की है आपने...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
४५०वी पोस्ट के लिए बधाई...
शुभकामनाए...
:-)
खूबसूरती से इस काव्य संकलन की समीक्षा की...
जवाब देंहटाएंकस्तूरी की सुगंध बड़े सलीके से फैलायी है।
जवाब देंहटाएंकस्तूरी की महक आपके शब्दों में भी गज़ब ढा रही है !
जवाब देंहटाएंआभार !
amazing...
जवाब देंहटाएंcongrats for 450th post.
४५० पोस्ट की बहुत बहुत बधाई ...सुन्दर समीक्षा..
जवाब देंहटाएंबेह्तरीन अभिव्यक्ति .
जवाब देंहटाएंhttp://madan-saxena.blogspot.in/
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वाह कस्तूरी महक गयी तुम्हारी कलम से ..सुन्दर बहुत्र सुन्दर समीक्षा ..:)
जवाब देंहटाएंअथक मेहनत और स्नेह साहित्य की कस्तूरी गागर में सागर भर रही हैं .....
जवाब देंहटाएंआपके शीघ्र स्वस्थ होने की हार्दिक शुभ कामनाएं !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा ....इसे पढ़ कर ऐसा लग रहा मानो सारी की सारी कस्तूरी की महक सिमट कर यहीं आ गयी ....बहुत बहुत धन्यवाद इस खुशबू को यूँ फ़ैलाने के लिए ...
जवाब देंहटाएंपरिचय का सुंदर प्रयास। ज़रूर पढना चाहेंगे अवसर मिलने पर।
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