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बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

"कागज़ ही तो काले करती हो "

तोड़ने से पहले तोडना
और जोड़ने से पहले जोड़ना
कोई तुमसे सीखे
कितनी आसान प्रक्रिया है
तुम्हारे लिए
ना जाने कैसी सोच है तुम्हारी
ना जाने कैसे संवेदनहीन होकर जी लेते हो
जहाँ किसी की संवेदनाओं के लिए
कोई जगह नही होती
होती  है तो सिर्फ एक सोच
अर्थ की दृष्टि से
अगर आप में क्षमता है
आर्थिक रूप से कुछ कर पाने की
तब तो आप की कोई जगह है
वर्ना आपका नंबर सबसे आखिरी है
बेशक दूसरे आपको सम्मान देते हों
आपके लेखन के कायल हों
मगर आप के जीवन की
यही सबसे बड़ी त्रासदी होती है
आप अपने ही घर में घायल होती हो
नहीं होता महत्त्व आपका
आपके लेखन का
आपके अपनों की नज़रों में ही
और आसान  हो जाता है उनके लिए कहना
क्या करती हो ........."कागज़ ही तो काले करती हो "
फिर चाहे बच्चे हों या पति
बेटा हो या बेटी
उनकी सोच यहीं तक सीमित होती है
और वो भी कह जाते हैं
आपका काम इतना जरूरी नहीं
पहले हमें करने दो
इतने प्रैक्टिकल हो जाते हैं
कि संवेदनाओं को भूल जाते हैं
उस पल तीर से चुभते शब्दों की
व्याख्या कोई क्या करे
जिन्हें पता ही नहीं चलता
उनके चंद लफ़्ज़ों ने
किसी की इमारत में कितनी दरारें डाल दी हैं
और दिलोदिमाग में हथौड़े से बजते लफ्ज़
जीना दुश्वार करते हैं
और सोचने को मजबूर
क्या सिर्फ आर्थिक दृष्टि से सक्षम
स्त्री का कार्य ही स्वीकार्य है
तभी उसके कार्य को प्रथम श्रेणी मिलेगी
जब वो आर्थिक रूप से संपन्न होगी
और उस पल लगता है उसे
शायद किसी हद तक सच ही तो कहा किसी ने
क्या मिल रहा है उसे ............कुछ नहीं
क्योंकि
ये वो समाज है
जहाँ अर्थ ही प्रधान है
और स्वान्तः सुखाय का यहाँ कोई महत्त्व नहीं ..............
शायद इसीलिये
हकीकत की पथरीली जमीनों पर पड़े फफोलों को रिसने की इजाज़त नहीं होती ...................


शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

अंकुरण की संभावना हर बीज मे होती है

लगता है मुझे
कभी कभी डरना चाहिये
क्योंकि डर मे एक
गुंजाइश छुपी होती है
सारे पासे पलटने की…
डर का कीडा अपनी
कुलबुलाहट से
सारी दिशाओं मे
देखने को मज़बूर कर देता है
फिर कोई भी पैंतरा
कोई भी चेतावनी
कोई भी सब्ज़बाग
सामने वाले का काम नही आता
क्योंकि
डर पैदा कर देता है
एक सजगता
एक विचार बोध
एक युक्तिपूर्ण तर्कसंगत दिशा
जो कभी कभी
डर से आगे जीत है
का संदेश दे जाती है
हौसलों मे परवाज़ भर जाती है
डर डर के जीना नही
बल्कि डर को हथियार बनाकर
तलवार बनाकर
सजगता की धार पर चलना ही
डर के प्रति आशंकित सोच को बदलता है
और एक नयी दिशा देता है
कि
एक अंश तक डर भी हौसलों को बुलन्दी देता है
क्योंकि
अंकुरण की संभावना हर बीज मे होती है
बशर्ते उसका सही उपयोग हो
फिर चाहे डर रूपी रावण हो या डर से आँख मिलाते राम
जीत तो सिर्फ़ सत्य की होती है
और हर सत्य हर डर से परे होता है
क्योंकि
डर की परछाईं तले
तब सजगता से युक्तिपूर्ण दिशा मे विचारबोध होता है
और रास्ता निर्बाध तय होता है………
अब डर को कौन कैसे प्रयोग करता है
ये तो प्रयोग करने वाले की क्षमता पर निर्भर करता है………

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

और बस उसी दिन निर्णय हो गया

……… कर रही हूँ मैं
हाँ ..........यही है मेरी नियति
जीना यूँ तो मुकम्मल कोई जी ना पाया
फिर मेरा जीवन तो यूँ भी
जलती लकड़ी है चूल्हे की
जिसमे बची रहती है आग
बुझने के बाद भी
सुबह से जली लकड़ी
शाम तक सुलगती रही
मगर राख ना हुई
एक भुरभुराता अस्तित्व
जिसे कोई हाथ नहीं लगाना चाहता
जानता है हाथ लगाते ही
हाथ गंदे हो जायेंगे
और राख का कहो तो कौन तिलक लगाता है
जो बरसों सुलगती रही
मगर फिर भी ना ख़त्म हुई
इसलिए एक दिन सोचा
क्यूँ ना ख़ुदकुशी कर लूँ
मगर मज़ा क्या है उस ख़ुदकुशी में
जो एक झटके में ही सिमट गयी
मज़ा तो तब आता है
जब ख़ुदकुशी भी हो ..........मगर किश्तों में
और बस उसी दिन निर्णय हो गया
और मैंने रूप लकड़ी का रख लिया
अब जीते हुए ख़ुदकुशी का मज़ा यूँ ही तो नहीं लिया जाता ना …………

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

बच्चे तो बस हो जाते हैं ...............


वो कहते हैं अब के बच्चों में
संवेदना नहीं पनपती
प्रेम प्यार के बीज ना
पल्लवित होते हैं
बेहद प्रैक्टिकल
होते जा रहे हैं
ना मान आदर सम्मान करते हैं
अब तो आँख की शर्म भी
भूलते जा रहे हैं
आपस में यूँ लड़ते झगड़ते हैं
मानो खून के प्यासे हों
ना  देश से प्यार
ना  समाज से
और ना  अपनों से
सिर्फ अपने लिए
जिए जा रहे हैं
मान मर्यादाओं को
भूले जा रहे हैं
मगर इसके कारण
ना  खोजे जा रहे हैं
क्यों आज की पीढ़ी में
अभाव पाया जाता है
क्यों नहीं उनके चेहरों पर
मुस्कान का भाव पाया जाता है
क्यों नहीं मुख से
आत्मीयता टपकती है
कारण खोजने होंगे
क्योंकि
ये सब पूर्व पीढ़ियों की ही तो देन  है
गहन अध्ययन करना होगा
आत्मशोधन करना होगा


प्रेम का न कहीं कोई भाव होता है

सिर्फ स्त्री और पुरुष
दो प्राणियों से निर्मित
जग संचालित होता है
गर गौर करोगे  तो पाओगे
प्रकृति के रहस्य भी जान  जाओगे
प्रकृति का फूल खिला होता है
एक रूप रंग गुण से भरा होता है
क्योंकि वहां मोहब्बत का संचार होता है
जो दिया मोहब्बत से दिया
जो लिया मोहब्बत से लिया
तो क्यों न वहां मोहब्बत का संचार हुआ
उस रूप पर ज्ञानी , अज्ञानी, कुटिल, खल , कामी
सभी मोहित होते हैं
पर फिर भी न हम कोई सीख लेते हैं
सिर्फ आत्म संतुष्टि  के लिए ही जीवन जीते हैं


स्त्री पुरुष दो भिन्न प्रकृति

तत्वतः जब एक होती हैं
तो सिर्फ रतिक्रीड़ा का ही
आनंद लेती हैं
वहां ना ये भाव होता है
न इक दूजे की सहमति  होती है
फिर मोहब्बत तो
उन क्षणों में
बेमानी लफ्ज़ बन रह जाती है
क्योंकि सिर्फ शरीरों का खिलवाड़ होता है
वहां तो आत्म संतुष्टि
का ही भाव उच्च आकार लेता है
जब स्वार्थ सिद्धि ही कारक बनेगी
तो कैसे न गाज गिरेगी
सिर्फ आत्म संतुष्टि के लिए
जब सम्भोग होता
तो ऐसे ही बच्चों का जन्म होगा
वहां बच्चे तो बस हो जाते हैं


स्त्री से कब पूछा  जाता है

वहां तो बीज बस रोंपा जाता है
उसकी चाहत पर अंकुश रख
अपनी चाहतों को थोपा जाता है
ऐसे में जैसा बीज पड़ेगा
फसल तो वैसी ही उगेगी
प्यार मोहब्बत संवेदन विहीन
पीढ़ी ही जन्म लेगी


क्षणिक आवेगों में

क्षणिक सुखों के वेगों में
बच्चे तो बस हो जाते हैं
और अपने किये की तोहमत भी
हम उन्हीं पर लगाते  हैं


क्योंकि

उपयुक्त वातावरण के बिना तो
ना कहीं कोई फूल खिलता है
उसे भी हवा , पानी और ताप
के साथ प्रकृति का
निस्वार्थ स्नेह मिलता है
तभी वो अपनी आभा से
नयनाभिराम दृश्य उपलब्ध कराता  है
फिर कैसे वैसा ही
आत्मीय सम्बन्ध बनाये बिना
मानवीय संवेदनाओं
का जन्म हो सकता है
जब सुनियोजित तरीके से विचार जायेगा
और गर्भधारण से पहले
इक दूजे की सहमति  , प्यार और समर्पण
को आकार  मिलेगा
उस दिन मोहब्बत
प्रकृति और पुरुष सी
जीवन में उतरेगी
इक दूजे को मान देगी
नयी पीढ़ी के जन्म में
मोहब्बत के अंकुरण भरेगी
तभी संवेदनाएं जन्म लेगीं
तभी मोहब्बत का पौधा लहलहाएगा
और हर चेहरे पर
खिला कँवल मुस्कराएगा
फिर न कभी ये कहा जायेगा
बच्चे तो बस हो जाते हैं
बच्चे तो बस हो जाते हैं ...............

सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

शुभ मुहुर्त

ना जाने कैसे रिवाज़ हैं
निकलवाते हैं हम तारीखें
कभी मुंडन की तो कभी ब्याह की
कभी गृहप्रवेश की तो कभी शुभ लग्न की
चिन्ता रहती है हमेशा
सब शुभ होने की
सब कार्य ठीक से सम्पन्न होने की
मगर भूल जाते हैं आवश्यक कार्य को
जिस कारण जन्म लिया
जिस कारण मानव तन मिला
कभी नही सोचा उस बारे मे
नही की कोई चिन्ता
नही चाहा कुछ ऐसा करना
आखिर क्यों?
क्या जरूरी नही है
मानव तन का सदुपयोग
क्या जरूरी नही है
हर पल का उपयोग
क्यों नही विचार किया
क्यों नही निकलवाया
वो शुभ मुहुर्त कभी
जब प्रस्थान करना होगा
मगर हाथ मे ना कुछ होगा
उससे पहले जो जरूरी
कर्म खुद के प्रति करना है
क्यों ना उसका विचार किया
क्यों नही निकलवाया
वो शुभ मुहुर्त कभी
जिसमे खुद से साक्षात्कार कर सकें
कुछ आत्मविचार कर सकें
आखिर कैसे भूल जाते हैं हम
अपने परम कर्तव्य को
गर जिसे यदि साध लें
तो ना जरूरत पडे
कोई भी शुभ मुहुर्त निकलवाने की
फिर हर पल , हर दिन , हर मुहुर्त शुभ ही शुभ हो………

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

उधार की सुबहों से ज़िन्दगी नहीं गुज़रा करती

करवटों ने साजिश की ऐसी, पायताने बदल गए
जो रूह के सुर्ख गुलाब थे, तेरी ख़ामोशी की भेंट चढ़ गए
अब नहीं लिखती नज़्म कोई तेरे शानों पर
पीठ पर देख तो कैसे फफोले पड़ गए
ये नामों के उधार कैसे चुकाती , ये सोच
नामों के ही पर कुतर दिए .............
अब चमड़ी के उधड़ने का डर नहीं
देख नाखून सारे खुरच दिए
यूँ सिलसिले बेतरतीबी के तरतीब में बदल गए
मगर  पेशानी पर तुम्हारी बल फिर भी पड़ गए
जब जाड़े की रातों में करवट तुम बदल गए
मेरी सिलवटों में देख वट और पड़ गए
जो  खोखली रवायतों पर सिर मैंने झुका दिया
तेरे कमान से देख तीर फिर भी निकल गए
आसमाँ की खामोशी पर तारे सारे पिघल गए
रात के सीने पर खून के आँसू उबल गए
अब सुबह की दरकार किसे
रुसवाइयों के आँगन में
तनहाइयों की महफ़िल में
हम तो रात में ही मर गए
और जीवन मृत्यु के फेर से
मुक्त जैसे हो गए , मुक्त जैसे हो गए .............

उधार की सुबहों से ज़िन्दगी नहीं गुज़रा करती ..........जानते हो ना मनमीत मेरे !!!!!!!!!