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मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

तुम्हारे होने ना होने के अंतराल में

सुनो 
तुम्हारे होने ना होने के अंतराल में 
ज़िन्दगी , लम्हे , पल 
यदि बसर हो जाते 
सच कहती हूँ 
तुम इतनी शिद्दत से 
ना फिर याद आते 
क्या मिला तुम्हें 
मुझसे मेरी ज़िन्दगी, लम्हे , पल चुराकर 
मैं तो उनमे भी नहीं होती 
जानते हो ना 
अपनी चाहत की आखिरी किश्त चुकता करने को 
बटोर रही हूँ ख्वाबों की आखिरी दस्तकें 
क्योंकि 
सिर्फ तुम ही तुम तो हो 
मेरे ह्रदय की पंखुड़ी पर 
टप टप करती बूँद का मधुर संगीत 
उसमे "मैं" कहाँ ?
फिर क्यों चुराया तुमने मुझसे 
मेरी चाहतों की बरखा की बूंदों को 
उससे झरते संगीत को ?
और अब मैं खड़ी  हूँ 
मन के पनघट पर 
रीती गगरिया लेकर 
तुम्हारे होने न होने के अंतराल के बीच का शून्य बनकर 

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बेहतरीन कविता की प्रस्तुति.

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  2. शून्य से ज्यादा अहम क्या होगा.
    सुन्दर.

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  3. बहुत ही सुन्दर......हमें तो ताश का कोई भी खेल नहीं आता ।

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  4. बाह सुन्दर ,सरस रचना . बधाई .

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  5. शून्य जिसमे जुड़ जाए ,कीमत बढ़ा देता है !
    बहुत खूब , सरस !

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  6. ये शून्य खुद की पाटना पढेगा ...
    होने ओर न होने का अंतराल कभी नहीं भरता ..

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  7. मनभावन शानदार रचना ...शून्य को कम मत आंकिये

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  8. पल भर को बिसरायी भर थी याद तुम्हारी,
    प्राण कण्ठ तक ले आयी थी याद तुम्हारी,
    चाहा कुछ एकान्त रहूँ पर फैल गयी वह,
    हृदय-कक्ष में सन्नाटे सी याद तुम्हारी।

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