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शुक्रवार, 17 मई 2013

" मन पखेरू उड़ चला फिर "………आखिर कैसे ये कमाल हुआ



जीवन एक कविता ही तो है बस जरूरत है तो उसे गुनगुनाने की , जीवन एक प्रेमगीत ही तो है बस जरूरत है तो उसमें रच बस जाने की और इन सब भेदों को जीवन्त किया सुनीता शानू ने अपने काव्य संग्रह " मन पखेरू उड़ चला फिर " के माध्यम से जो हिन्द युग द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह है .

मन की गति अबाध होती है  . कौन कौन से ब्रह्मांडों की सैर पर निकल जाती है कोई सोच भी नहीं सकता मगर सुनीता के पैर धरती पर ही हैं बस मन है जो हिरन सा कुलांचे भरता अपने लक्ष्य की और दौड़ रहा है . कभी प्रेम बनकर तो कभी विरह बनकर , कभी मानवीय सरोकारों से जूझता तो कभी जीने की जिजीविषा का गान बनकर एक ऐसा संगीत बनकर जो प्रकृति सा निस्सृत बह रहा है और पाठक उसके संग डूब उतर रहा है . 
कवि मन कितनी सादगी से मन के उद्गारों को प्रकट करता है कि लगता है जैसे हम ये ही तो सोच रहे थे 

मोहब्बत की बातें होठों पर होती नहीं हैं 
आँखें खुद बताती हैं छुपाकर सोती नहीं है 

तो कहीं यादों के झुरमुट में खोजते वो क्षण हैं जो ज़ेहन  कि धरोहर बने रहते हैं ताउम्र 


बचपन के उस घरौंदे की कसम तुमको 
अब आ ही जाओ 
कच्ची इमली की कसम तुमको 
आह भी वो 
नीम पीपल बर्गाफ्द बुलाते हैं 
तन्हाई में 
हमें अक्सर वाही तो याद आते हैं 

कितनी कोमलता है भावों में तो एक कसक , एक मिठास भी तारी है जो मन को भिगोता है .

जीने को क्या चाहिए सिर्फ इक मुट्ठी आसमान और उसी की चाहत यहाँ जज़्ब है 

लोग 
कहते हैं मसीहा 
सरे जग को 
देने वाले ज्यादा नहीं पर थोडा सा ही 
 मुझको तेरा प्यार दे दे 
जी सकें जिसमें तनिक , इक 
छोटा सा संसार दे दे 

भावों की गरिमा ग़ज़ल में माध्यम से दिल तक पहुँचती है 

लगे हैं फूलों के मेले शाखों पर ऐसे 
की जैसे  परिंदा नया कोई आया है 

काग भी बोल रहा था मुंडेर पर कब से 
घर पे तुम्हारे ये मेहमान कौन आया है 


ये ही नहीं कवि मन अपनी संस्कृति को भी नहीं भूलता है बल्कि उसमे तो उसका मन और हिलोरें लेने लगता है तभी तो होली का खूबसूरत चित्रण कर पाता है 

दूर कहीं कलरव करती 
चली परिंदों की बरात 
कहीं बजी बांस में शहनाई 
और महकती बह चली 
रंगीन पुरवाई 
 कि आज होली रे ..........................


मन पखेरू से बतियाती सुनीता उस असमंजस को बयां करती है जिससे हर कोई गुजरता है और मन को बाँधने के जतन  करता है 

रे नीडक , तू चंचल क्यूं है 
कहीं तेरा छोर न पाता  है 
कभी इधर तो कभी उधर 
इक डाल  पे टिक नहीं पाता है 

रे पाखी अब मान भी जा टू 
क्यूं अपमानित हुआ जाता है
 ये सच है  कि सुबह का भूला 
लौट शाम घर आता है 
आ तनिक विश्राम भी कर ले 
ठहर क्यों नहीं पाता है 


"पंछी तुम कैसे गाते हो "कविता के माध्यम से जीवन की जिजीविषा का बहुत ही सफल वर्णन किया है साथ ही एक सीख भी मिलती है  कि जीवन जीना कैसे चाहिए .


एक तरफ " इंतज़ार" के मुहाने पर खड़ा प्रेम है तो दूसरी तरफ " प्यार का सितारा" कहीं टूट जाता है क्योंकि गागर में भी सागर समाया है 

फेंक कर पत्थर जो मर 
तड़प उठीं मौन लहरें 
डूबने से डर रहे तुम 
शांत मन की झील में 

शायद झील से भी ज्यादा गहरा है यहाँ प्रेम का अस्तित्व 


छोटी छोटी क्षणिकाएं बहुत गहरी बात कह रही हैं 

मौत ने ज़िन्दगी पर 
जब किये हस्ताक्षर 
वह था एक और ज़िन्दगी के 
जन्म लेने का पहला दिन 


तुम तनहा कहाँ हो 
लिपटी हुयी तुमसे 
मैं जो रहती हूँ सदैव 
कहती है तन्हाई मुझसे 


उसकी आँखों से हकीकत बयां होती है 
हर घडी एक नया इम्तिहान होती है 
घूरने लगती हैं दुनिया  कि नज़र उसको 
जब किसी गरीब की बेटी जवान होती है 


बहुत देर के बाद कहा 
तुमने मुझे अपना 
लेकिन अब मैं 
किसी और की हो चुकी हूँ 


अंतर्मन जब बेचैन हो उठता है , कहीं कोई ठौर न उसे दीखता है तब पुकार उठता है उस असीम को और जोड़ लेता है उसी से " दर्द का रिश्ता " क्योंकि एक वो ही तो है जहाँ जाकर दर्द भी चैन पाता है 

एक कोने में बैठा 
निर्विकार 
सौम्य 
अपलक निहारता मुझे 
और बा्ट जोहता की 
मैं 
पुकारूं तेरा नाम 


" अतीत के दंश " नाम ही काफी है सब कुछ बयां करने को जिसे कुछ यूं बयां किया है 

कभी कभी आत्मा के गर्भ में 
रहा जाते हैं कुछ अंश 
दुखदायी अतीत के 
जो उम्र के साथ साथ 
फलते फूलते 
लिपटे रहते हैं 
अमर बेल की मानिंद 


तो दूसरी तरफ भावुक मन समाज में फैले कोढ़ पर भी दृष्टिपात किये बिना नहीं रहता जिसे उन्होंने मासूमियत के माध्यम से उकेरा है 

मासूम अबोध आँखों को घेरे 
स्याह गड्ढों ने भी शायद 
वक्त से पहले ही 
समझा दिया था उसे 
 कि सबको खिलाने वाले 
उसके ये हाथ 
जरूरी नहीं कि भरपेट खि्ला पायेंगे 
उसी को 

" मलाल " शायद ज़िन्दगी की हकीकत को बयां करती रचना है जहाँ जरूरी होता है दोनों पक्षों का खुश रहना जो कभी संभव ही नहीं हो पाता और एक मलाल दोनों के दिलों को ता- ज़िन्दगी कचोटता रहता है 

तुम्हें शायद 
यकीं न हो किन्तु यही सच है 
तुम ही कहो 
क्या कभी कोई किसी को 
रखा पाया है खुश 
पूरी तरह से ?

एक बेटी के मन की पीड़ा को गहनता से महसूसता दिल उसके दर्द को कुछ इस तरह बयां करता है 

कहा था एक दिन तुमने 
पराई अमानत है 
ये बच्ची 
तभी से आज तक माँ 
मैं अपना घर ढूंढती हूँ 


" कामवाली " कविता जीवन के कटु यथार्थों को बेलिबास करती वो रचना है जो सच कहने से नहीं हिचकिचाती  कि लाइफ लाइन हैं ये कामवालियां आज लेकिन किन हालात में और कैसे काम करती हैं खुद को भुलाकर ये एक सोचने का विषय है 

घरवाली के सौन्दय का ख्याल रख तुम्हें 
बने रहना है पूर्ववत 
कामवाली तुम्हें बस काम से मतलब रखना है 
तुम्हारा पति 
तुम्हारे बच्चे 
तुम्हारा सजना संवारना 
शाम होने और दिन निकलने के 
बीच का मामला है 
तुम जानती हो 

कुंठित सोच पर तुषारापात करती है कविता .....कामवाली 

किस पर करूँ विश्वास , ख़ामोशी , श्रृंखला , एक शाम , कन्यादान , माँ आदि सभी कवितायेँ जीवन के पहलुओं से ओतप्रोत रचनायें हैं जो रोज हम सबके जीवन में घटित होती हैं मगर सब कोई उन्हें शब्दों में बांध नहीं पाता और ये तो रोजमर्रा का काम है सोच कोई भी ध्यान नहीं देता जबकि ये ही तो जीवन की हरित क्रांति का एक हिस्सा हैं जिनके बिना जीवन अधूरा दीखता है और जिन्हें यदि शब्दों की मेड लगा कर बांध दिया जाए तो एक जीवन दर्शन होता है .

 सुनीता की सभी कवितायेँ जीवन के प्रत्येक क्षण की गवाह रही हैं फिर चाहे वो " चिन्ह " हो या " डोर " या " फिर जीना चाहती थी मैं " हो . हर कविता सहजता से अपनी बात कह जाती है जहाँ पाठक को जोर नहीं लगाना पड़ता बस डूबता जाता है उन पलों में जो उसके जीवन के करीब होते हैं , जहाँ वो खुद को जैसे एक आईने के सम्मुख पाता है और अपने जीवन का दर्शन करता है . 

एक ऐसा काव्य संग्रह है " मन पखेरू उड़ चला फिर " जिसमे मन ही तो बतिया रहा है ,मन ही उड़ान भर रहा है कभी दिशा में तो कभी दिशाहीन होता मगर मन तो आखिर मन है , चंचल है , किसी जगह नीड़ कब बनाता है और उसी चंचलता ने हमें इस काव्य संग्रह के रूप में एक हम सबके जीवन का आईना दिया है जिसमे कुछ देर बैठकर हम खुद को निहार सकें , खुद से बतिया सकें और यही किसी भी लेखक के लेखन की सफलता है जहाँ पाठक खुद को उन क्षणों का हिस्सा समझे और उसमे जिए .

सुनीता को अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए कामना करती हूँ वो इसी तरह आगे बढती जाएँ और हम सब को अपनी प्रतिभा से रु-ब -रु कराती रहे . 


195 रूपये मूल्य वाल इस काव्य संग्रह को जो भी पाठक प्राप्त करना चाहते हैं वो हिन्दयुग्म से संपर्क कर सकते हैं 

हिन्द युग्म 
1 , जिया सराय , हौज खास 
नई दिल्ली ---110016

मोबाइल --
9873734046
9968755908

प्यारी सखी सुनीता की कल इस किताब का विमोचन कांस्टीट्यूशन क्लब में होगा और मेरी तरफ़ से उन्हें ये प्यार भरा तुच्छ तोहफ़ा मैं भेंट कर रही हूँ ह्रदय के उदगारों के रूप में जो मैने उनकी किताब पढकर महसूस किये ………उम्मीद है स्वीकार्य होगा 

19 टिप्‍पणियां:

  1. आप वाकई स्नेही हैं वन्दना ...
    इससे अच्छा तोहफा और क्या होगा , कल सविधान क्लब में मिलते हैं ..
    बधाई आपकी सखी को !

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  2. @सतीश सक्सेना जी बस भावभीने मन से ये उद्गार व्यक्त किये हैं अत्यंत खुशी होती है जब किसी को इस प्रकार पहचान बनाते और आगे बढते देखती हूँ और जो मुझसे बन पडता है करती हूँ …………कल आने की पूरी कोशिश है बस देर से आ पाऊँगी और कल के चर्चा मंच पर भी चर्चा की है ।

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  3. बहुत ही अच्‍छी समीक्षा की है आपने पुस्‍तक की ... सुनीता जी को बहुत-बहुत बधाई आपका आभार
    सादर

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  4. बहुत अच्छी समीक्षा की है वंदना जी आप ने.. सुनीता जी को बहुत-बहुत बधाई

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  5. समीक्षा में ही आनंद आ गया, पुस्तक वाकई पठनीय और संग्रहणीय होगी।
    शुभकामनाएं

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  6. वन्दना जी, आपको व सुनीता जी को बहुत बहुत बधाई ! सुंदर समीक्षा !

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  7. समीक्षा पूरे विस्तार से की गयी है |
    वधाई !

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  8. समीक्षा अच्छे ढंग से की गयी है- विस्तार से !

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  9. समीक्षा विस्तार पूर्वक की गयी है !

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  10. समीक्षा विस्तार पूर्वक ढंग से की गयी है !

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  11. बहुत ही सुन्दर और सार्थक समीक्षा.

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  12. बहुत ही सुन्दर और सार्थक समीक्षा.

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  13. बहुत सुन्दर और रोचक समीक्षा...पुस्तक पढ़ने की इच्छा जाग्रत हो गयी...

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  14. बंदना जी .इसके पूर्व भी आपके द्वारा लिखित समीक्षाओं को पढ़ने का मौका मिला..आपके इस प्रयास में भी पूरे काव्य संग्रह की जानकारी समग्रता से मिली..आपकी तमाम साहित्यिक उपलब्धियों के बिषय में भी जानकारी हुई..आपको और सुनीता जी को सादर बधायी के साथ

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  15. समीक्षा ने सभी पहलुओं को छुआ है ..निश्चित ही पुस्तक पठनीय है ..

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