कहाँ से शुरू करूँ
क्या संबोधन दूं
और क्या लिखूं
कुछ ख्याल टकरा रहे हैं
मगर आकार पाने से पहले
एक जिद कर रहे हैं
सभी ने कुछ न कुछ लिखा
अपने प्रिय को
मगर नहीं मिला कोई ऐसा
जिसने खुद को कोई ख़त लिखा हो
चलो लिखो आज तुम
अपने नाम एक ख़त
मगर ईमानदारी से
जिसमे जिक्र हो तुम्हारी
उन अधूरी हसरतों का
उन अनकही चाहतों का
उन मिटटी में दबे जज्बातों का
जिन्हें ना कभी आकार मिला हो
उन सुबहों का जिनमे
कोई इठलाता सपना
सरगोशी करता हो
उन रातों का जब
एक एक पहर में
न जाने कितने
इन्द्रधनुष खिल उठे हों
या किसी रात को
जब तकिये पर सिर्फ निशाँ
ही बाकी रह गए हों
और अश्क सूख गए हों
उस तन्हाई का जिसमे तुम
किसी के साथ होते हुए भी
अकेली रह गयी हों ………
या उस मुस्कुराहट का
जब दर्द के असंख्य बिच्छू
डंक मार रहे हों
और तुम मुस्कुरा रही हो
क्या लिख सकोगी
पूरी ईमानदारी से खुद को ख़त
जो किसी ने पढ़ा न हो
और तुम्हारी ज़िन्दगी का
सशक्त हस्ताक्षर बन गया हो
और मैं ....................
अब सोच में हूँ
क्या लिख सकूंगी कभी खुद को ऐसा ख़त
जिसमे रूह में जज़्ब कीलें
एक - एक कर निकालनी होंगी
और आहों की पारदर्शी स्याही से
किसी अनाम पन्ने पर
वो इबारत लिखनी होगी
जिसे पढने की ज़हमत तो खुदा भी न कर सके
क्योंकि ..........जानती हूँ
ज़मींदोज़ रूहों की मजारों पर दिए नहीं जला करते
तो क्या लिख सकूंगी कभी खुद को ऐसा ख़त ...................?
क्या संबोधन दूं
और क्या लिखूं
कुछ ख्याल टकरा रहे हैं
मगर आकार पाने से पहले
एक जिद कर रहे हैं
सभी ने कुछ न कुछ लिखा
अपने प्रिय को
मगर नहीं मिला कोई ऐसा
जिसने खुद को कोई ख़त लिखा हो
चलो लिखो आज तुम
अपने नाम एक ख़त
मगर ईमानदारी से
जिसमे जिक्र हो तुम्हारी
उन अधूरी हसरतों का
उन अनकही चाहतों का
उन मिटटी में दबे जज्बातों का
जिन्हें ना कभी आकार मिला हो
उन सुबहों का जिनमे
कोई इठलाता सपना
सरगोशी करता हो
उन रातों का जब
एक एक पहर में
न जाने कितने
इन्द्रधनुष खिल उठे हों
या किसी रात को
जब तकिये पर सिर्फ निशाँ
ही बाकी रह गए हों
और अश्क सूख गए हों
उस तन्हाई का जिसमे तुम
किसी के साथ होते हुए भी
अकेली रह गयी हों ………
या उस मुस्कुराहट का
जब दर्द के असंख्य बिच्छू
डंक मार रहे हों
और तुम मुस्कुरा रही हो
क्या लिख सकोगी
पूरी ईमानदारी से खुद को ख़त
जो किसी ने पढ़ा न हो
और तुम्हारी ज़िन्दगी का
सशक्त हस्ताक्षर बन गया हो
और मैं ....................
अब सोच में हूँ
क्या लिख सकूंगी कभी खुद को ऐसा ख़त
जिसमे रूह में जज़्ब कीलें
एक - एक कर निकालनी होंगी
और आहों की पारदर्शी स्याही से
किसी अनाम पन्ने पर
वो इबारत लिखनी होगी
जिसे पढने की ज़हमत तो खुदा भी न कर सके
क्योंकि ..........जानती हूँ
ज़मींदोज़ रूहों की मजारों पर दिए नहीं जला करते
तो क्या लिख सकूंगी कभी खुद को ऐसा ख़त ...................?
भावमय करते शब्द ... अनुपम प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं'तेरी खुशबू मे बसे खत मै जलाता कैसे', आपकी कविता पढने के बाद बस्स यही गजल सुनने का मन करता है.
जवाब देंहटाएंवाकई में ऐसा ख़त लिखना तो बहुत मुश्किल है ..रचना बहुत पसंद आयी...मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है ....सादर
जवाब देंहटाएंअपनी अपने मन में रहेगी..
जवाब देंहटाएंऐसे खत लिखना आसान नहीं है
जवाब देंहटाएंमुश्किल है ..... आत्ममंथन सा करती रचना
जवाब देंहटाएंकोशिश करता हूं,
जवाब देंहटाएंवाकई एक बड़ा और अहम सवाल उठाया आपने
मुझे लगता है कि पहले तो खुद के लिए खत लिखना आसान नहीं है और उसमें ईमानदारी.. बाबा रे बाबा
बढिया रचना
सच को बयाँ करता ये आपका खत ...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआशा
सच निकलेगा मार्ग बनाकर।
जवाब देंहटाएंये दर्द सिसकते क्यूँ हैं
जवाब देंहटाएंये ख्वाब तरसते क्यूँ हैं
उढ़ा दिया जब कफ़न इनको
जी उठने को मचलते क्यूँ हैं .....आपकी रचना पढ़कर ये पंक्तियाँ ज़हन में आयीं .
मुश्किल है स्वयं को ही लिखना दर्द की इबारत को सहेजना , फिर से गुजरना !
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