पेज

सोमवार, 11 नवंबर 2013

सकारात्मक सोच की रौशनी

बालों में छाई सफेदी कोई कहानी कहे ना कहे मगर चेहरे की लकीरें उम्र के तजुर्बे में कब तब्दील हो जाती हैं सब को पता हो या ना हो मगर खुद के अन्दर एक क्रांतिकारी आन्दोलन आड़ोलित होने लगता है और अम्मा ने तो कभी खुद से भी बात नहीं की थी तो कैसे किसी को उसके अन्दर घटित होती घटनाएं तजुर्बे की दीवारों पर कहानी लिख पातीं।  चार बेटों की माँ बन अम्मा अपनी ज़िन्दगी के हर फ़र्ज़ को बखूबी निभा चुकी थीं।  सब अच्छी तरह अपनी गृहस्थी में सुखी थे बस अम्मा ही थी जो पति के जाने के बाद भी अपने को संभाल सबको एकत्र किये थी एक ही छत के नीचे।  बहुओं से भी कभी कोई उम्मीद नहीं करतीं।  सबको कार्य इस तरह बाँट देती कि  किसी को शिकायत न हो।  किसी को कहीं जाना हो तो पहले दिन बताये ताकि अगले दिन उसके बदले के काम बांटे जा सकें यदि कोई बहू भूल जाती थी तो अगले दिन बिना किसी बहू को कुछ कहे अम्मा खुद वो काम करने लगती तो बहू को खुद अपनी गलती का अहसास हो जाता और अगली बार वो ऐसी कोई गलती करने की कल्पना भी नहीं करती।  यही एक परिपक्व सोच की पहचान होती है जिस वजह से कभी घर में कलह न होती सब एक दूसरे  को पूरा प्यार और सम्मान देते।  जब छोटे बेटे की शादी भी हो गयी तो अम्मा ने सारी जमीन जायदाद को सारे  बच्चों में बाँटने का निर्णय लिया और दुकान  और मकान के बराबर चार हिस्से कर दिए बड़े बेटे  के हिस्से पुराना मकान आया तो उसने जब आवाज़ उठाई तो अम्मा ने कहा कि बेटा दुकान  तुम्हें चलती हुयी मिली है यदि ये नहीं लेना तो जो छोटे को दे रही हूँ उससे बदल लो वहां मकान नया होगा मगर दुकान तुम्हें खुद नए सिरे से चलानी होगी तब बड़े बेटे को अहसास हुआ कि हमारी माँ कितनी दूरदर्शी है अब इस उम्र में यदि नयी दुकान चलाऊंगा तो बच्चे बड़े हो गए हैं कैसे उनकी पढाई और शादी की जिम्मेदारी उठाऊंगा दूसरी तरफ छोटे पर अभी जिम्मेदारी नहीं है तो नए सिरे से कारोबार शुरू करेगा तो २-४ साल में व्यवसाय जम जाएगा।  अम्मा की इसी दूरदर्शिता और काबिलयत की वजह से सारे  बहू बेटे दिल से अम्मा का आदर किया करते थे और अम्मा के होते किसी को किसी भी बात की चिंता नहीं होती थी अम्मा जिस भी बेटे के घर बैठी होतीं वहीँ खाना खा लेतीं यहाँ तक कि  कोई भी भाई किसी के भी घर बैठे उठे वही खाना खा लेना , रुक जाना, एक दूसरे के काम आना उनके लिए आम बात थी।  आज अम्मा उनके बीच नहीं रहीं मगर वो अपने पीछे एकता और सहनशीलता में कितनी शक्ति होती है उसके  महत्त्व को  बच्चों में छोड़ गयी थीं।  किसी के बेटे बेटी उसे याद करें उसके जाने के बाद बड़ी बात नहीं मगर यदि उसके जाने के बाद उसकी बहुएँ उसे अपनी माँ से भी ज्यादा याद करें और उनके बताये रास्ते का अनुसरण करें इससे बेहतर और क्या होगा।  आज अम्मा की सकारात्मक सोच की रौशनी उनके परिवार के प्रत्येक बच्चे में ऐसे जज़्ब हो गयी थी जैसे शिराओं में लहू।  
ये किस्सा जब उसकी बहू ने अपनी सहेलियों को सुनाया तो सभी नतमस्तक तो हुयीं ही साथ में सबने अम्मा को सोच की एक एक किरण अपने जीवन में भी आत्मसात करने का निर्णय लिया ………… इस तरह अम्मा समाज में चेतना की नयी रौशनी बिखेर गयी थीं। 

9 टिप्‍पणियां:

  1. अनुभव बोलता है ... और माता पिता तो हमेशा ऐसे ही होते हैं .... अम्मा की सूझबूझ सच ही काम की बातें सिखा जाती हैं ...

    जवाब देंहटाएं
  2. और इस परम्परा को बहुएं भी आगे बढ़ाएंगी..

    जवाब देंहटाएं
  3. सकरत्मक सोच से बढ़कर कुछ नहीं होता।
    अच्छा संदेश देती रचना।


    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. तजुर्बों की जिसने मान ली
    उसने दुखों को हराने की ठान ली ....
    बुजुर्ग बरगद की छाया हैं .......

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १२ /११/१३ को चर्चामंच पर राजेशकुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है

    जवाब देंहटाएं

अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया