ओ मेरे काल्पनिक प्रेम
प्रेम ही नाम दिया है तुम्हें
काल्पनिक तो हो ही
वो भी तब से
जब जाना भी न था प्रेम का अर्थ
जब जाना भी न था प्रेम क्या होता है
फिर भी सहेजती रही तुम्हें
ख्यालों की तहों में
और लपेट कर रख लिया
दिल के रुमाल में
खुशबू आज भी सराबोर कर जाती है
जब कभी उस पीले पड़े
तह लगे दिल के रुमाल
की तहें खोलती हूँ
भीग जाती हूँ सच अपने काल्पनिक प्रेम में
और जी लेती हूँ एक जीवन
काल्पनिक प्रेमी के प्रेम में सराबोर हो
तरोताजा हो जाता है यथार्थ
जरूरी तो नहीं न तरोताजा होने के लिए कल्पना का साकार होना
यूं भी काल्पनिक प्रेम कब वैवाहिक रस्मों के मोहताज होते हैं
ज़िन्दगी जीने के ये भी कुछ हसीन तरीके होते हैं
क्या बात
जवाब देंहटाएंबहुत सुदंर रचना
बढिया भाव..
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जवाब देंहटाएंमाया से प्रेम ... साक्षात कृष्ण से प्रेम ही तो है ...
जवाब देंहटाएंpremas se sarabor kavita....wah
जवाब देंहटाएंआपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार१९/११/१३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर व कोमल अनुभूतियाँ............
जवाब देंहटाएंवाह बहुत बढिया
जवाब देंहटाएंवाह .... अनुपम भावों का संगम
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर,बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें.
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