हैवानियत के अट्टहास पर इंसानियत किसी बेवा के लिबास सी लग रही है
वो मेरा कोई नहीं था
वो पडोसी मुल्क का था
मैं उसे नहीं जानती
मैंने उसे कभी नहीं देखा
फिर भी मेरा उसका कोई रिश्ता था
हाँ जरूर था कोई तो रिश्ता
वर्ना कलेजा यूँ फटा न होता
आँख से आंसू झरा न होता
वो पडोसी मुल्क का था
मैं उसे नहीं जानती
मैंने उसे कभी नहीं देखा
फिर भी मेरा उसका कोई रिश्ता था
हाँ जरूर था कोई तो रिश्ता
वर्ना कलेजा यूँ फटा न होता
आँख से आंसू झरा न होता
हाँ था मेरा और उसका रिश्ता
शायद इंसानियत का
शायद ममत्व का
शायद इंसानियत का
शायद ममत्व का
वो मेरा कोई नहीं था ........फिर भी इक रिश्ता तो था , फिर भी इक रिश्ता तो था
(कल जब उन मासूमों के चेहरे दिखाए जो हैवानियत की भेंट चढ़ गए तो आंसू रोके नहीं रुके )
इन्सानियत के रिश्ते तो हैं तभी तो ऐसी हैवानियत देख कर आँसू लाज़िमी हैं ...हम सब भी इसी दुःख से गुजर रहे हैं
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (19-12-2014) को "नई तामीर है मेरी ग़ज़ल" (चर्चा-1832) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
संवेदनशील। ।
जवाब देंहटाएंइंसानियत मुहताज नहीं पहचान की.
जवाब देंहटाएंआसुओं की एक ही पहचान है.
एक ही आवाज होती है.
कहने को कुछ नहीं इस समय मेरे पास !
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