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गुरुवार, 13 अगस्त 2015

मुझे एक बात समझ नहीं आती



अक्सर फिल्म हो ,कविता या कहानी 
सबमें दी जाती है एक चीज कॉमन 
जो संवेदनहीनता और मार्मिकता का बनती है बायस 
और हिट हो जाती है कृति 

माँ हो या बाबूजी 
जरूरत उन्हें होती है 
सिर्फ एक अदद चश्मे की 
जो पैसे वाला हो या निकम्मा 
मगर कभी बनवा नहीं पाता बेटा  

और यही से आरम्भ होता है मेरा प्रश्न 
जो मेरी समझ के कोनो में मचाता है घमासान 
क्या महज चश्मे तक ही सीमित होती हैं उनकी जरूरतें और बच्चों के कर्तव्य ?

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (14.08.2015) को "आज भी हमें याद है वो"(चर्चा अंक-2067) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

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  2. बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......

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अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया