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गुरुवार, 10 मार्च 2016

चीखो चीखो चीखो

आओ चलो
गढ़ें एक चीखों का संविधान
कि 
चीखें  अप्रासंगिक तो नहीं
बना डालें चीखों को ज़िदों का पर्याय
ये समय है
चीखों की अंतरात्मा को कुरेदने का
एक दुर्दांत समय  के साक्षी बनने  बेहतर है
चीखो चीखो चीखो
कि
 जिन आवाज़ों में दम होता है
वो ही पहुँचती हैं अर्श तक
आज मेरी चीख तेरी चीख से तेज कैसे की प्रतियोगिता नहीं
आज जितनी तेज चीख
उतना साष्टांग दंडवत करने  का नियम है
तो फिर करो एक जिद खुद से
चीखना महज क्रिया या प्रतिक्रिया नहीं
चीखना जरूरत है
मेरी तुम्हारी
इसकी उसकी
चीखना बिना मोल भाव की रंगोली है
एक घड़घड़ाहट ही काफी है बादलों को छाँटने को ..

 


4 टिप्‍पणियां:

  1. चीख कर पूरा ब्रांहांड सर पर उठाने से भी कुछ नहीं होता , चुप रहकर मुस्कुरा देने से उत्तर मिल जाता है , नया विषय बधाई

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-03-2016) को "आवाजों को नजरअंदाज न करें" (चर्चा अंक-2279) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-03-2016) को "आवाजों को नजरअंदाज न करें" (चर्चा अंक-2279) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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