चार दिन पहले सोचा अब कुछ पढ़ा नहीं जा सकेगा यदि पढ़ा भी तो लिखा नहीं जा सकेगा लेकिन मेरी सोच फेल हो गयी जब #डार्कहॉर्स शुरू की . सहज प्रवाहमयी शैली ने ऐसा समां बाँधा कि आधा पहले दिन पढ़ा तो रात को सोते समय एक बेचैनी घेरे रही और अगले दिन उसे पूरा पढने के बाद भी ख़त्म नहीं हुई जब तक कि जो मन में घटित हो रहा था उसे लिख नहीं लिया . क्या कहा जाए इसे ? क्या ये लेखन की सफलता नहीं ? आज का युवा जो लिख रहा है वो पढ़ा जाना भी उतना ही जरूरी है जितना वरिष्ठों को . एक साल में उपन्यास के चार संस्करण आ गए . कुछ तो बात होगी ही और फिर जिस तरह उपन्यास की समीक्षा आ रही थीं या पाठकीय टीप उससे लग रहा था , एक बार इस घोड़े पर दांव खेल ही लिया जाए और #बुकफेयर में पहले दिन लेखक नहीं मिल सके तो बुक भी नहीं खरीदी . दोबारा जब गयी तब मिले तो उस दिन खरीदी और लेखक के साथ एक तस्वीर खिंचवाने का भी आनंद लिया . उस दिन मैंने कहा था कि पहले जो किताबें भेंट में मिली हैं उन पर लिख दूँ उसके बाद मेरी मर्ज़ी लेकिन यहाँ मेरी मर्ज़ी नहीं चली . चली तो लेखन की मर्ज़ी जिसने खुद को पढवा भी लिया और लिखवा भी लिया जबकि भेंट में मिली पुस्तक अभी लाइन में हैं .शायद यही होती है लेखन की सफलता .जाने कितने चेतन भगत वक्त के गर्भ में छुपे हैं जरूरी है तो उनका सही मूल्याँकन. तो प्रस्तुत है मेरा नजरिया :
शब्दारम्भ प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास ‘डार्क हॉर्स’ नीलोत्पल मृणाल का पहला उपन्यास है तो प्रकाशन का भी .
एक युवा का लेखन के क्षेत्र में आगमन स्वागत योग्य है क्योंकि पहला ही उपन्यास इतनी प्रसिद्धि पा रहा है ....आखिर क्यों ? ये सोचने का विषय हो सकता है . आखिर क्या है इसकी विषय वस्तु जबकि नाम अंग्रेजी का है . ‘डार्क हॉर्स .... एक अनकही दास्ताँ’ .......सच ही कहा है लेखक ने . ये एक अनकही दास्ताँ ही है . साहित्य समाज का दर्पण होता है ........अक्सर कहा जाता है और लेखक ने वो ही तो किया है उस क्षेत्र को छुआ है जिस पर अभी तक किसी ने लिखा ही नहीं , किसी की दृष्टि पड़ी ही नहीं . उस पर भी लेखक का ये कहना ,’इसमें कितना साहित्य है और एक ज़िन्दगी की सच्ची कहानी कितनी है ‘ सोचने को मजबूर करता है कि आखिर साहित्य को जब समाज का दर्पण कहा गया है तो समाज सिर्फ किन्ही गिने चुने क्षेत्रों से तो नहीं बनता न . समाज का हर क्षेत्र उस दायरे में आता है . जरूरी नहीं कि सिर्फ दलित , आदिवासी ,किसान, प्रेम या स्त्री विषयक विषय ही साहित्य के क्षेत्र में आते हों . अपने वक्त में जो भी लिखा गया वो उस वक्त की तस्वीर होता है और उसी से उस दौर का आकलन . ये तभी संभव है जब उस वक्त की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की जाए और सच्ची तस्वीर तभी बनेगी जब उस समय के हर पहलू , हर क्षेत्र पर दृष्टिपात किया जाये , तभी उस वक्त का साहित्य उस समाज का वास्तविक दर्पण बनेगा और ऐसा ही इस उपन्यास के लेखक ने किया है . यदि आज किसी भी लेखन को सिर्फ इसलिए खारिज कर दिया जाए कि उसमे शुद्ध परिष्कृत भाषा नहीं तो ये उस समाज का दर्पण कभी नहीं हो सकता . ये तो ऐसा हुआ जैसे श्रृंगार युक्त नववधू लेकिन असलियत तो श्रृंगार रहित होने पर सामने आती ही है न तो क्यों नहीं बिना अलंकृत किये जो जैसा है वैसा ही स्वीकारा जाए क्योंकि आडम्बर सर्वग्राह्य नहीं होता और जब इस वक्त का आकलन हो तो सत्य सामने होना जरूरी है .फिर इस उपन्यास में ऐसा कुछ नहीं है जिसे साहित्य से विलग किया जाए . भाषाई चमत्कार ही साहित्य नहीं होता आज के आलोचकों, पाठकों और वरिष्ठ साहित्यकारों सभी को ये समझना चाहिए .
आज के बदलते परिवेश और तकनीक के इतना फ़ास्ट होने के कारण हर क्षेत्र में प्रतिद्वंदिता इतनी बढ़ गयी है कि आज का युवा समझ भी नहीं पाता उसके लिए क्या सही है और क्या गलत . लेखक ने इस उपन्यास ने भोगे हुए यथार्थ के साथ अनुभव को भी आत्मसात किया है और उस सच्चाई को प्रस्तुत किया है जो देखने में तो बहुत सुन्दर लगती है और हर कोई चाहता है उसका बेटा हो या बेटी वो आई ए एस बने लेकिन उस ख्वाब को पूरा करने में किन बीहड़ों से आज का युवा गुजरता है उसका मानो जीवंत चित्रण लेखक ने किया है . पढ़ते हुए पाठक को लगता है अरे हाँ , इस पात्र को तो जैसे मैं जानता हूँ . एक चलचित्र सा सामने खींचता चला जाता है . कैसे दूर दराज के क्षेत्रों में नौकरी के ज्यादा संसाधन न होने के कारण युवा हो या उसके घरवाले सिर्फ एक ही सपना देखते हैं किसी तरह उनका बच्चा कलेक्टर बन जाए फिर उनकी कई पीढियां तर जाएँगी और इसी विश्वास पर वो अपने जीवन के स्वर्णिम पल दांव पर लगा देते हैं बिना जाने इस हकीकत को कि बहुत कठिन है डगर पनघट की .
बहुत आसान है सीधे ग्रेजुएशन कर आई ए एस की तैयारी करना लेकिन उस लक्ष्य को प्राप्त करना एक दुरूह काँटों भरी डगर है . लेखक ने उपन्यास में मुख्य किरदारों में रायसाहब , मनोहर , गुरु और संतोष को रखा और इन्ही के माध्यम से कहानी आगे बढाई . सभी किरदार यू पी , बिहार आदि क्षेत्रों से हैं . एक सपना पाले कि बस दिल्ली के मुख़र्जी नगर से यदि कोचिंग कर ली तो कलेक्टर बनना तय है और इसी विश्वास के सहारे सभी दिल्ली आते हैं और घर वाले हों या गाँव वाले सभी को ये आस हो जाती है कि ये तो पक्का कलेक्टर बन कर ही रहेगा . मगर बाहर से आने वाला जब अपने सपने की दुनिया से हकीकत की दुनिया में कदम रखता है तब उसका ज़िन्दगी की खट्टी मीठी हकीकतों से सामना होता है और पता चला है यथार्थ का धरातल कितना उथला है .
मुख़र्जी नगर देश में विख्यात एक ऐसी जगह है जहाँ सपने सच करने का विश्वास पूरे देश में कायम है और इसी वजह से दूर दराज से बच्चे वहां आते हैं मगर आने के बाद सबसे पहले रहने के लिए जब किराए पर जगह देखते हैं तो ऐसी हकीकत सामने आती है जो गले से नीचे नहीं उतरती लेकिन उतारनी पड़ती है . गाँव से जो आता है वो एक खुले वातावरण से आता है जहाँ खुला घर होता है लेकिन यहाँ उसे सिर्फ २५ गज में कमरा, बाथरूम और किचन मिलता है जहाँ उस के कोमल मन पर पहली दरार पड़ती है लेकिन कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है या कहिये कुछ पाने के लिए समझौता तो करना ही पड़ेगा और वो करता है . इस दृश्य का इतना सटीक वर्णन लेखक ने किया है कि पढ़ते हुए पाठक को आँखों के आगे घटित होता जान पड़ता है .
इसके बाद आती है कोचिंग की बारी . मुख़र्जी नगर जो कोचिंग इंस्टिट्यूट का हब है वहां जब कोई नया नया आता है तो उसे नहीं पता होता कौन सा बेस्ट है और कम से कम २ साल तो वो इंस्टिट्यूट बदलने में ही बर्बाद कर देता है क्योंकि जहाँ जाता है वहीँ हर इंस्टिट्यूट खुद को बेस्ट बताने में माहिर होता है तो दूसरी तरफ मुर्गा फंसाने में भी और इसके लिए वो हर तरीका अपनाते हैं कैसे प्रलोभन दिया जाये जो मुर्गा फंस जाए और अक्सर ऐसा ही होता है . यहाँ तक कि यदि आपका कोई जानकार वहां पहले से हो तो भी सही गाइड नहीं कर पाते और आप उस मकडजाल में फंस जाते हैं .और अंत में जब आपका कीमती वक्त हाथ से निकल जाता है तब आपको समझ आता है कि पहला कदम ही सोच समझ कर पूरी जानकारी के साथ उठाना चाहिए .
अगली बात आती है संग साथ की . क्योंकि वहां सब बाहर से आये होते हैं तो यूँ कोई किसी को नहीं जानता लेकिन सब इतने आत्मीय हो जाते हैं कि लगता ही नहीं कि पहली बार मिले हों . नए आने वाले के रहने खाने आदि के सब इंतजाम सब मिलजुल कर ऐसे करते हैं कि आने वाला खुद पर फक्र करने लगता है . वहीँ इस तरह रहने वाले बच्चे धीरे धीरे सही गलत सोहबत में भी पड़ जाते हैं जो समझदार होते हैं वो खुद को संभाल लेते हैं और जो यहाँ की रंगीनियों से प्रभावित हो जाते हैं वो फिर कहीं के नहीं रहते बल्कि उनका करियर भी प्रभावित हो जाता है और लक्ष्य भी . इस उपन्यास के माध्यम से मानो लेखक बिना कहे बहुत कुछ कह रहा है और पाठक के विवेक पर छोड़ रहा है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं . और यही बात उसने अंत में सिद्ध भी की लेकिन अपनी तरफ से एक शब्द नहीं कहा और जो नहीं कहा वो ही इस उपन्यास की मुख्य ध्वनि है क्योंकि जब किसी का सिलेक्शन नहीं होता तो वो अपने को दोष नहीं देता कि खुद को कहाँ कमी रही बल्कि वो भाग्य को दोष देने लगता है कि सही कहते हैं लोग कि मेहनत के साथ भाग्य का होना भी जरूरी है और इसी आधार पर कई ख़ारिज हो जाते हैं और उनके अटेम्प्ट जब ख़त्म हो जाते हैं तो बिलबिलाते पंछी की भाँती वो भाग्य को कोसते चले जाते हैं वहीँ कुछ भाग्य से ज्यादा खुद पर भरोसा रखते हैं और आत्मविश्लेषण करते हैं कि कहाँ क्या गलती हुई या कहाँ क्या कमी हुई और फिर वो उन कमियों और गलतियों से सबक लेकर जब अगली बार जुटते हैं तो लक्ष्य हासिल करके ही रहते हैं . जिनसे कोई उम्मीद नहीं होती कि ये लक्ष्य प्राप्त कर भी सकेगा कभी वो ही बाजी मार जाते हैं और ‘डार्क हॉर्स’ कहलाते हैं जबकि जो बडबोले होते हैं या ज्यादा जानकार होते हैं , जिनकी हर चीज पर अच्छी पकड़ होती है और जिनके हर शब्द से सामने वाला प्रभावित हो जाता हो , कई बार वो ही लोग मात खा जाते हैं . मानो लेखक ने उपन्यास के माध्यम से यही संकेत देने की कोशिश की है ... हर किसी को अपना हंड्रेड परसेंट देना चाहिए यानि अपने कर्म को पूरी ताकत झोंक कर करना चाहिए फिर सफलता आपके कदम जरूर चूमेगी इसमें कोई शक नहीं . वहीँ असफल विद्यार्थी कैसे भाग्य के साथ ज्योतिष आदि में विश्वास कर अपना मन उस तरफ से फेर लेते हैं और दूसरी राह चुन लेते हैं लेकिन उस सब में उनके जीवन के कीमती साल बर्बाद हो जाते हैं .
इसके साथ लेखक ने अन्य पहलुओं पर भी दृष्टिपात किया है जैसे कैसे कोई कर्ज लेकर बच्चे को पढने भेजता है तो कोई किसान का बेटा है तो किसी के यहाँ कोई कमी भी नहीं तो उसी के सहारे वो आखिरी अटेम्प्ट तक कोशिश करता है और जब माता पिता कर्ज के नीचे दबने लगते हैं और अपनी सहायता न देने पर विवश हो जाते हैं तो उसे वापसी कूच करना पड़ता है . वही आज जब इन हालातों का जब बच्चों को पता होता है तो उन्हें चाहिए थोड़ी किफ़ायत से पैसे का प्रयोग करें लेकिन शुरू में सब हरा ही हरा दीखता है तो उन्हें पैसे की कद्र नहीं होती और आपसी दोस्ती और पार्टी आदि में काफी खर्च कर देते हैं यहाँ तक की इंस्टिट्यूट में भी पूरी फीस भर देते हैं जबकि कुछ समझदार पहले वहां डेमो क्लास लेकर देखते हैं और ठीक समझते हैं तभी एडमिशन लेते हैं . इसी तरह लड़कियों का जीवन में आने पर क्या प्रभाव पड़ता है उसका भी साथ में दिग्दर्शन कराया है कोई बहक जाता है , कोई संभल जाता है तो कोई बेवक़ूफ़ क्योंकि नए नए आते होते हैं कुछ पता नहीं होता जो जरा सा हंस कर बात कर ले उसे ही दिल दे बैठते हैं जबकि कुछ लड़कियां अपने काम में माहिर होती हैं , कैसे किस्से काम निकलवाना है वो जानती हैं . इसी तरह शराब सिगरेट नॉन वेज आदि का प्रयोग कैसे युवा को अपनी गिरफ्त में लेता है क्योंकि वहां कोई अंकुश नहीं होता ऊपर से नयी दोस्ती , एक खुला माहौल जो उन्हें अपने लक्ष्य से भटकाने को काफी होता है . जाने कितनी ही ऐसी विसंगतियां हैं जिन पर लेखक ने प्रकाश डाला है लेकिन अपनी तरफ से एक शब्द नहीं कहा , सब पाठक के विवेक पर छोड़ दिया कि उसे तय करना है क्या सही है और क्या गलत . वहीँ जो बाहर से आकर दिल्ली में रहते हैं तो उनके घर के चाचा मामा आदि को यूं लगता है जैसे उनकी लाटरी लग गयी और जब चाहे मुंह उठाये कभी बीमारी के कारण तो कभी दिल्ली भ्रमण के आशय से आ जाते हैं और उम्मीद करते हैं कि अब उनके आशय को पूरा करना उन बच्चों का दायित्व है और वो बेचारे लिहाज के कारण वो सब करने को विवश होते हैं . उपन्यास में बेशक उन पात्रों को फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो अपना ज्यादातर समय वैसे भी कौन सा पढने पर लगाते थे लेकिन सोचने वाली बात है जो दिन रात सिर्फ पढ़ाई में लगे हों वहां उनका एक एक मिनट कीमती होता है ऐसे में यदि कोई रिश्तेदार ऐसे आ जाए और उसकी खातिरदारी में उसे अपना कीमती वक्त जाया करना पड़े तो क्या उसकी परफॉरमेंस पर असर नहीं पड़ेगा ....... मानो ये किस्सा देकर लेखक ने उसी विसंगति पर प्रहार किया है .
इसी तरह एक सत्य और कहलवाया पात्र मनमोहिनी के माध्यम से कि ये सच है यहाँ सब कलेक्टर बन्ने आते हैं लेकिन हमें पता होता है कि सौ में से दस ही सलेक्ट होंगे बाकी सब गधे ही होते हैं पर सबको घोडा कहना होता है . यानि ये एक ऐसा धोखा होता है जिसकी खूबसूरती से ही सब धोखा खाते हैं और फिर भी वहीँ एडमिशन लेते हैं और इसी तरह उनका धंधा फलता फूलता रहता है जबकि सच्चाई सिर्फ इतनी होती है कि अपनी लगन और मेहनत ही सफलता की गारंटी होते हैं न कि कोचिंग सेंटर . वो तो कोरे वाणिज्यिक संस्थान होते हैं . जो कलेक्टर नहीं बन पाया वो टीचर बन गया और वहीँ पढ़ाने लगा और बताने लगा मेरा तो सिलेक्शन हो गया था लेकिन वो मैंने छोड़ दिया क्योंकि मुझे उससे ज्यादा सुकून यहाँ मिलता है या मेरा लक्ष्य इतने हजार छात्रों को कलेक्टर बनाने का है और विद्यार्थी उनकी इन बातों में आ जाते हैं जबकि वो वहां अपना साइड बिज़नस कर रहे होते हैं जैसे साथ में अपनी लिखी किताब बेचना या टिफ़िन आदि पहुंचाना . सब एक ऐसा दृष्टिभ्रम बन उभरता है कि जब हकीकत का आभास होता है तो खुद को लुटा हुआ ही पता है एक विद्यार्थी .
वहीँ यदि कोई सफल हो जाता है तो कैसे उसकी सफलता उसकी ही नहीं उसके घरवालों की भी तकदीर बदलने लगती है ये विमेलेंदु के उदाहरण से प्रस्तुत किया . तो जिसने यहाँ की सच्चाई जान ली वो चुपचाप कैसे अपने भविष्य का निर्माण करता है वो संतोष के माध्यम से प्रस्तुत किया .
अब यदि भाषा को देखा जाए तो लेखक ने वहां भी जो जहाँ का था उसी की भाषा का प्रयोग किया ख़ास तौर से भोजपुरी भाषा और बोली के प्रयोग ने उपन्यास को सम्पूर्णता प्रदान की वहीँ एक जगह अंग्रेजी और हिंदी भाषा के मध्य खिंची रेखा को भी बखूबी रेखांकित किया ये बताने को कि इंसान की ज़िन्दगी में किस भाषा का क्या महत्त्व होना चाहिए . जो यही दर्शाता है संभावनाओं की फसल बखूबी लहराएगी यदि लेखक को उचित प्रोत्साहन मिले . आज के युवा को एक सही मार्गदर्शन आज के समय को परिभाषित करने में ही सहयोग करेगा क्योंकि आज का युवा क्या चाहता है , क्या सोचता है ये सिर्फ वो ही बता सकता है और उसके लिए जरूरी है साहित्य को खांचों में न बांटा जाए बल्कि एक खुला आकाश सबको दिया जाए ताकि हर कोई अपनी उन्मुक्त उड़ान भर सके .
लेखक ने अनेक पहलुओं को छुआ और इतनी सादगी से छुआ कि पाठक का अन्तरंग भीगता रहा लेकिन वो पता भी नहीं चला कि लेखक आखिर कहना क्या चाहता है जबकि लेखक बिना कहे भी सब कह गया . यही होती है एक सफल लेखन की निशानी जहाँ क्या और कितना कहना है के फर्क का लेखक को पता हो . लेखक का पहला उपन्यास है जो वास्तव में एक आईना है उस सच्चाई का जिससे अक्सर महरूम ही रहता है पाठक .
आज के हर युवा को ये उपन्यास पढना चाहिए यदि वो खुद को ऐसे किसी ओहदे पर देखना चाहता है तो कम से कम उस राह की विसंगतियों से तो वाकिफ होना जरूरी है और यही लेखक के लेखन का मकसद है .
ये उपन्यास हर युवा पढ़े इसके लिए जरूरी है इसका अंग्रेजी भाषा में भी अनुवाद हो क्योंकि आज का युवा ज्यादातर अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल करता है तो वहीँ मैं तो चाहूंगी भोजपुरी में भी अनुवाद हो ताकि जहाँ से सबसे ज्यादा युवा एक ख्वाब देखकर मुख़र्जी नगर या अन्य कोई चाहत पाले आता है तो उस तक अच्छइयां और बुराइयां दोनों पहुंचें और वो सटीक निर्णय ले सके .
लेखक अनेकानेक बधाइयों और शुभकामनाओं का पात्र है जो उसने एक ऐसा उपन्यास लिख जाने कितनी भ्रांतियों पर से पर्दा उठाया है . उम्मीद है लेखक की आगे भी ऐसी कृतियाँ पाठकों को मिलती रहेंगी जो साहित्य को समृद्ध करने में अपना योगदान देती रहेंगी . एक युवा लेखक के लेखन को सराहना हम सब का दायित्व है क्योंकि इन्ही में देश , समाज और साहित्य का भविष्य छुपा है .
वंदना गुप्ता
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (07-03-2016) को "शिव का ध्यान लगाओ" (चर्चा अंक-2274) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " खूंटा तो यहीं गडेगा - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और बेहतरीन प्रस्तुति, महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें।
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