सुनो देवी
तुम तो नहीं हिन्दू या मुसलमान
फिर कैसे देखती रहीं अन्याय चुपचाप
क्यों न काली रूप में अवतरित हो
किया महिषासुर रक्तबीज शुम्भ निशुम्भ का नाश
सुनो देवी
क्या संभव है तुम्हें भी तालों में बंद रखना?
फिर क्यों नहीं खोले तुमने
चंड मुंडों के दिमाग
क्यों नहीं दुर्गा रूप में अवतरित हो
किया अत्याचारियों का विनाश
सुनो देवी
क्या मान लें अब हम
तुम्हारा अस्तित्व भी महज कपोल कल्पना है
क्या जरूरी है
इंसानियत और मानवता से उठ जाये सबका विश्वास
और आस्था हो जाए पंगु
देखो देवी देखो
चहुँ ओर मच रहा कैसा हाहाकार
जब ईश्वरीय अस्त्तिव भी प्रश्चिन्ह के कटघरे में खड़ा हो गया
और कोई राजनीतिज्ञ
राम और रहीम के नाम पर
अपनी रोटी सेंक गया
क्या महज उन्हीं के हाथ की कठपुतली हो तुम
या फिर
उन्हीं तक है तुम्हारी भी प्रतिबद्धता?
उठो देवी उठो
करो जागृत खुद को
करो सुसज्जित स्वयं को दिव्य हथियारों से
सिर्फ एक बार
कर दो वो ही भीषण रक्तपात
मिटा दानवों को दो मनुष्यता को आधार
गर न कर सको ऐसा
तो कर दो देवी पद का त्याग
जो भ्रम से तो बाहर आ जाए इंसान
ईश्वर सबसे संदेहात्मक दलील है ...
#आसिफा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-04-2018) को ) "कर्म हुए बाधित्य" (चर्चा अंक-2942) पर होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
सटीक, आस्था के साथ जागृति को जोड़ती रचना
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब ...प्रेरक रचना...