विकल्पहीन होती है माँ
बच्चों की हसरतों के आगे
भूल जाती है दर्दोगम अपना
कर देती है खुद को किनारे
अपनी चाहतों को मारे
कि
खुद को मारकर जीना जो सीख चुकी होती है
तो क्या हुआ
जो उम्र एक अवसाद बन गयी हो
और जीवन असरहीन दवा
ममता का मोल चुकाना ही होता है
अपनी चाहतों को दबाना ही होता है
कि
घुट घुटकर जीना ही बचता है जिसके सामने अंतिम विकल्प
किसे कहे और क्या ?
कौन समझता है यदि कह भी दे तो ?
ये तकाजों का दौर है
जिसका जितना बड़ा तकाज़ा
उसका उतनी जल्दी भुगतान
मगर माँ
वो क्या करे ?
कैसे और किससे करे तकाज़ा
सूखी रेत सा झरना ही जिसकी नियति हो
तो क्या हुआ
जो रोती हो सिसकती हो अकेले में
कि
जड़त्व के सिद्धांत से वाकिफ है
इसलिए नहीं चाहती
विकल्पहीनता उतरे उनके हिस्से में
जी जाना चाहती है
अपने बच्चों के हिस्से की भी विकल्पहीनता
कि
विकल्प ही होते हैं उम्मीद का नया कोण
इससे ज्यादा और क्या दे सकती है एक माँ अपने बच्चों को ......
कविता के शीर्षक ने सब कुछ बयां कर दिया । बहुत सुंदर रचना वंदना जी ।
जवाब देंहटाएंमाँ, सबसे छोटा शब्द मगर सम्पूर्णता के साथ....
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत ही सुंदर ,बधाई हो नमस्कार
जवाब देंहटाएंमातृ दिवस पर सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक. बहुत भावपूर्ण.
जवाब देंहटाएंबढिब रचना
जवाब देंहटाएंमाँ तो फिर माँ होती है अकल्पनीय और अवर्णनीय भी। बड़ी ही खूबसूरती से पिरोया आपने दोस्त जी , हमेशा की तरह
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