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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

क्षितिज पर एक बार फिर................

मैं 
दरिया हूँ 
ना बाँधो 
मुझको 
बहने दो
अपने किनारों से 
लगते - लगते
मत तानो 
बंदिशों के 
बाँध 
मत बाँधो
पंखों की 
परवाज़ को
मत लगाओ 
मेरे आसमानों पर
हवाओं के पहरे 
एक बार
उड़ान 
भरने तो दो
एक बार 
बंदिशें तोड़
बहने तो दो
एक बार
खुले आसमान में 
विचरने तो दो
फिर देखो 
मेरी परवाज़ को
मेरी उडान को
धरती आसमां में
सिमट जाएगी 
आसमां धरती सा
हो जायेगा 
और शायद 
क्षितिज  पर 
एक बार फिर
मिलन हो जायेगा 

19 टिप्‍पणियां:

  1. एक बार
    बंदिशें तोड़
    बहने तो दो
    एहसास बहुत खूबसूरत हैं
    बन्दिशे तो तोड़नी ही होगी

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  2. अच्छी पंक्तिया की रचना की है ........

    (क्या अब भी जिन्न - भुत प्रेतों में विश्वास करते है ?)
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_23.html

    जवाब देंहटाएं
  3. बंदिशों के
    बाँध
    मत बाँधो
    पंखों की
    परवाज़ को
    मत लगाओ
    मेरे आसमानों पर
    हवाओं के पहरे
    एक बार
    उड़ान
    भरने तो दो
    --
    --
    पागल झरनों को मत,
    संयत बाध तोड़कर बहने दो।
    अपने अरमानों को मत,
    बहशी दुनिया से कहने दो,
    गुल गुलाब की तरह रहो,
    और खिलो खूब बगिया में-
    कोमल तन पर काँटों की,
    कुछ मृदुल चुभन रहने दो।।

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  4. कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई

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  5. वंदना जी बहुत ही अच्छी कविता !
    बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  6. "खुले आसमान में
    विचरने तो दो
    फिर देखो
    मेरी परवाज़ को
    मेरी उडान को
    धरती आसमां में
    सिमट जाएगी
    आसमां धरती सा
    हो जायेगा
    और शायद
    क्षितिज पर
    एक बार फिर
    मिलन हो जायेगा "... प्रेम और जीवन की कविता... बहुत ही खूबसुरती से कह रही है आप!

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  7. धरती आसमा में सिमट जायेगी ...... आसमा धरती सा हो जायेगा.... वह बहुत खूब..... मन मोह लिया आपके इस कविता ने.....

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  8. उडानों की ऊँचाइयों के सामने आसमान, पहाड़ और सागर नतमस्तक हो जायेंगे।

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  9. Haan Hhai! aaj Vandana ji ko dariya bn jane do' jaise "Ganga" bn gayi thi "Ganga Saagar". Usi prakar Vandana ji ab ho jayengi "Vandniya"........aur yahi to hamari kaamna hai, Shubh kamna hai----

    गंगा एक नदी है
    जो निकलती है गोमुख
    गंगोत्री से और
    आकर नीचे हिमालय से
    हरिद्वार - प्रयाग - काशी होते हुए
    ऋषि - मुनियों के कुटीरों का
    स्पर्श - संश्पर्शन करते हुए ..
    जा मिलती है - सागर से.
    और बन जाती है - "गंगा सागर".

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  10. धारा प्रवाह अभिव्यक्ति के लिए बधाई !!

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  11. मत रोको ...
    उड़ने दो इन्हें ...पंछी- सा
    बहने दो ...नदिया- सी
    मैंने भी लिखा था कुछ ऐसा ही ..संवेदनशील स्त्रियों की प्रतिक्रियां एक जैसी ही होती हैं ...!

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  12. बहुत सुन्दर ..उड़ान की अभिलाषा ..बंदिशों को तोडने की ख्वाहिश ..सुन्दर शब्दों में बाँधी है ...

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अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया