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शनिवार, 4 दिसंबर 2010

हाँ , मैंने गुनाह किया

हाँ , 
मैंने गुनाह किया
जो चाहे सजा दे देना
जिस्म की बदिशों से
रूह को आज़ाद कर देना
हँसकर सह जाऊँगा
गिला ना कोई 
लब पर लाऊंगा
नहीं चाहता कोई छुडाये
उस हथकड़ी से 
नहीं कोई चाहत बाकी अब
सिवाय इस एक चाह के
बार- बार एक ही 
गुनाह करना चाहता हूँ
और हर बार एक ही
सजा पाना चाहता हूँ
हाँ , सच मैं 
आजाद नहीं होना चाहता
जकड़े रखना बँधन में 
अब बँधन युक्त  कैदी का 
जीवन जीना चाहता हूँ
बहुत आकाश नाप लिया 
परवाजों से
अब उड़ने की चाहत नहीं
अब मैं ठहरना चाहता हूँ
बहुत दौड़ लिया ज़िन्दगी के 
अंधे गलियारों में 
अब जी भरकर जीना चाहता हूँ
हाँ ,मैं एक बार फिर
'प्यार' करने का 
गुनाह करना चाहता हूँ
प्रेम की हथकड़ी  से
ना आज़ाद  होना चाहता हूँ
उसकी कशिश से ना
मुक्त होना चाहता हूँ
और ये गुनाह मैं
हर जन्म ,हर युग में
बार- बार करना चाहता हूँ

35 टिप्‍पणियां:

  1. प्यार का गुनाह करना चाहता हूँ यह क्या कह दिया आपने , बहुत खूब

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  2. बहुत सुन्दर!! अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिये है। बधाई स्वीकारें।

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  3. कौन कहता है ,प्यार गुनाह है ।
    करते सभी हैं--------

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  4. अगर प्यार करना गुनाह है तो हर जीव को ये गुनाह करना चाहिए कम से कम नफरत की बुरी भावना से तो दूर रहेगा.

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  5. बहुत सुन्दर ! एक गाना याद या गया फिल्म शराबी से ...
    "प्यार करना जुर्म है तो जुर्म हमसे हो गया
    काबिले माफ़ी हुआ करते नहीं ऐसे गुनाह"

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  6. Ye zidd kayam rahe to na jane kitno k ghar aabad kar jaye..sundar kavita :)

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  7. बहुत दौड लिया ,बहुत भाग दौड करली । उस भागदौड में न चैन मिला न आराम मिला न ही जी पाया । यदि इस हथकडी में नहीं बंधता तो पता ही न चलता कि क्यों आया था क्यों गया जिया भी कि नहीं जिया । असली जीवन तो इन हथकडियों में ही है।यह पहले न जाना । और यदि ायह अपराध है तो गुनहगार हूं हर सजा झेलने को तैयार।
    न मुक्त होना चाहता हूं नही ंके आगे एक लाइन और बढ सकती है कि मै मुक्ति भी नहीं चाहता बार बार जन्म लेना चाहता हूं इस हथकडी में बंधने के लिये ।

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  8. करिये भाई करिये गुनाह ....यहाँ कौन सजा दे रहा है ? :):) प्रवाहमयी रचना

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  9. अगर यह गुनाह है, तो इस तरह के गुनहगारों को उम्रक़ैद की सज़ा मिलनी चाहिए।

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  10. फिर से प्यार करने का गुनाह....वाह !-बेहतरीन अभिव्यक्ति !

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  11. यह कविता वाकई मेँ प्रेरणाश्रोत है

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  12. हर जन्म ,हर युग में
    बार- बार करना चाहता हूँ....

    करना भी चाहिए.....

    बहुत ही शानदार रचना...

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  13. प्रेम का नशा ही ऐसा है कि कोई बाहर ही नहीं निकलना चाहता है।

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  14. वन्दना जी
    बहुत सुन्दर भाव है...
    एक शेअर याद आ गया

    हमारे प्यार का हर रंग ख़्वाब जैसा था
    वो इक गुनाह था, लेकिन सवाब जैसा था...

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  15. वंदना जी
    क्या बात है ! बहुत सुंदर रचना है …

    हां , मैं एक बार फिर
    'प्यार' करने का
    गुनाह करना चाहता हूं …

    जब सज़ा इतनी ख़ूबसूरत मिलने की उम्मीद हो तो यह गुनाह कौन नहीं करना चाहेगा … ?

    क़लम चलती रहे …
    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  16. बहुत सुन्दर रचना!
    --
    हाँ ,मैं एक बार फिर
    'प्यार' करने का
    गुनाह करना चाहता हूँ
    प्रेम की हथकड़ी से
    ना आज़ाद होना चाहता हूँ
    उसकी कशिश से ना
    मुक्त होना चाहता हूँ
    और ये गुनाह मैं
    हर जन्म ,हर युग में
    बार- बार करना चाहता हूँ
    --
    गुनाह है लेकिन....
    सभी इस गुनाह को करते हैं!
    क्योंकि प्यार ही जिन्दगी है!

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  17. प्यार और गुनाह ???
    हो ही नहीं सकता...


    पहचान कौन चित्र पहेली ...

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  18. इस गुनाह कि सजा भी यादगार होती है.


    आपका आभार,
    आपके अपने ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है
    http://arvindjangid.blogspot.com/

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  19. और मैं ये ग़ुनाह हर जन्म हर युग में बार बार करना चाहता हूं।
    ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति। बधाई।

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  20. रूह के आज़ाद होने पर जिस्म के बंधन का क्या मूल ....
    बहुत गहरी बात ...

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  21. बहुत ही भावपूर्ण एवं कोमल अभिव्यक्ति ! अति सुन्दर !

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  22. बहुत सुन्दर प्यार ही जिन्दगी है

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  23. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! आपकी लेखनी को सलाम!

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  24. वाह वंदना जी......क्या खूबसूरती से प्रेम को व्याख्या दी है आपने.....

    फिराक साहब का एक शेर अर्ज़ है -

    'कोई समझे तो एक बात कहूँ,
    इश्क तौफिक है, गुनाह नहीं'

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  25. प्रेमपरक सुन्दर रचना के लिए बधाई

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  26. प्रेम का एक और आयाम .. नए तरह से अभिव्यक्त होती रचना अच्छी लगी.. मन को छू गई.. सच कहा है आपने.. प्रेम की हथकड़ी से कौन आज़ाद होना चाहता है.. मैं भी कैद हो जाना चाहता हूँ.. सुन्दर कविता..

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  27. "हाँ,मैं एकबार फिर
    प्यार करने का गुनाह
    करना चाहता हूँ."
    सूफियाना अंदाज में कही गयी बात.अंतिम पड़ाव तो प्रेम ही है.इन्सान चाहे जितना भी भटक ले.
    वंदना जी आपकी रचनाएँ गंभीर बातों को भी सहजता से कह जाती हैं.पढ़कर आनंद आ गया .

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  28. कविता पहले भी पढ़ी थी , तब कुछ लिख नहीं पाया था क्योंकि इससे पहले तुम्हारी कविताओ में इस तरह कि सुफिस्म undertone नहीं थी .. आज फिर पढ़ा ,..सकूँ भी मिला ,लेकिन थोडा दर्द भी मिला ... ये special mixing of emotions के लिये मेरे पास तुम्हारी तारीफ के के लिये शब्द नहीं है ... हाँ एक बात कहना चाहूँगा कि इस कविता कि ओपनिंग negative thought के साथ है जो कि कविता के मध्य और अंत के साथ न्याय नहीं करती है .. अगर हो सके तो इसे re -edit करके फिर compose करो..

    इस बात का बुरा नहीं मानना

    विजय

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अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया