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सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

और बस उसी दिन निर्णय हो गया

……… कर रही हूँ मैं
हाँ ..........यही है मेरी नियति
जीना यूँ तो मुकम्मल कोई जी ना पाया
फिर मेरा जीवन तो यूँ भी
जलती लकड़ी है चूल्हे की
जिसमे बची रहती है आग
बुझने के बाद भी
सुबह से जली लकड़ी
शाम तक सुलगती रही
मगर राख ना हुई
एक भुरभुराता अस्तित्व
जिसे कोई हाथ नहीं लगाना चाहता
जानता है हाथ लगाते ही
हाथ गंदे हो जायेंगे
और राख का कहो तो कौन तिलक लगाता है
जो बरसों सुलगती रही
मगर फिर भी ना ख़त्म हुई
इसलिए एक दिन सोचा
क्यूँ ना ख़ुदकुशी कर लूँ
मगर मज़ा क्या है उस ख़ुदकुशी में
जो एक झटके में ही सिमट गयी
मज़ा तो तब आता है
जब ख़ुदकुशी भी हो ..........मगर किश्तों में
और बस उसी दिन निर्णय हो गया
और मैंने रूप लकड़ी का रख लिया
अब जीते हुए ख़ुदकुशी का मज़ा यूँ ही तो नहीं लिया जाता ना …………

14 टिप्‍पणियां:

  1. नारी के जीवन की व्यथा .... ख़ुदकुशी से कम नहीं ... अच्छी प्रस्तुति

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  2. वाह ... बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  3. बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....

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  4. "Kiston mai marne ka maza liya jaye.."
    Waah, Naya nazariya..sunder kavya !!

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  5. नारी की पीड़ा का बहुत मार्मिक चित्रण किया है बहुत बढ़िया

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  6. नारी व्यथा की बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर

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