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सोमवार, 18 मार्च 2013

आखिर मैं चाहती क्या हूँ

कभी कभी फ़ुर्सत के क्षणों में
एक सोच काबिज़ हो जाती है
आखिर मैं चाहती क्या हूँ
खुद से या औरों से
तो कोई जवाब ही नहीं आता
क्या वक्त सारी चाहतों को लील गया है
या चाहत की फ़सलों पर कोई तेज़ाबी पाला पड गया है
जो खुद की चाहतों से भी महरूम हो गयी हूँ
जो खुद से ही आज अन्जान हो गयी हूँ
कोई फ़ेहरिस्त अब बनती ही नहीं
मगर ये दुनिया तो जैसे
चाहतों के दम पर ही चला करती है
और मौत को भी दरवाज़े के बाहर खडा रखती है
बाद में आना ………अभी टाइम नहीं है
बहुत काम हैं
बहुत सी अधूरी ख्वाहिशें हैं जिन्हें पूरा करना है
और एक तरफ़ मैं हूँ
जिसमें कोई ख्वाहिश बची ही नहीं
फिर भी मौत है कि मेरा दर खटखटाती ही नहीं

सुना है ……ख्वाहिशों, चाहतों का अंत ही तो ज़िन्दा मौत है

तो क्या ज़िन्दा हूँ मैं या मौत हो चुकी है मेरी?

10 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सही कहा आपने कि अब चाहतों की कोई फेहरिस्त बनाना वाकई आसान नहीं है। आसान या यूं कहें कि समझ में ही नहीं आता कि क्या चाहत है।

    बढिया विषय, शानदार अभिव्यक्ति
    बहुत सुंदर

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  2. वन्दना जी, जब चाहतें समाप्त हो गयी हों तब शांत होकर भीतर देखना होगा..कोई न कोई चाहत छुपी होगी कहीं न कहीं...अगर सचमुच न मिली तब तो जीवन एक उत्सव ही बन जायेगा..जीवन्मुक्ति उसी को तो कहते हैं..

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  3. ख्‍वाहि‍शों का अंत मौत है..;बि‍ल्‍कुल सही

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  4. ऊहापोह भरा बहुत, मन का अन्तर्द्वन्द |
    तपता सूर्य है कभी, कभी है शीतल चन्द ||

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  5. ऊहापोह भरा बहुत, मन का अन्तर्द्वन्द|
    तपता सूर्य है कभी, कभी है शीतल चन्द ||

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  6. हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी,कि हर ख्वाहिश पे दम निकले....

    सस्नेह
    अनु

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  7. वंदना जी क्या खूब लिखती हैं आप! बेहद खूबसूरत !

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  8. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.शुभकामनायें.

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  9. चाहतों के पूर्ण विराम को संतुस्ती कहते है . और संतुस्ट होना मौत की और कदम नहीं ..और उस मौत का जिसका कोई पता नहीं.धनात्मक उर्जा सारी समस्याओं का समाधान है. हालाँकि कठिन है

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