पेज

गुरुवार, 21 मार्च 2013

आना चाहते हो ना इस पार

सुनो 
आना चाहते हो ना इस पार 
मेरे गमों को 
मेरे दर्द को 
अपने जीने की 
वजह बनाने को 
तो ध्यान से आना 
यहाँ बुझी चितायें भी 
शोलों सी भभकती हैं 
अरे रे रे संभलना ………
ये जो धार है ना अश्कों की
इन पर पाँव ज़रा संभल कर रखना
कहीं फ़फ़ोले ना पड जायें
और मेरे दर्द में
एक इज़ाफ़ा और कर जायें
जानते हो ना ………
मैं चाहे कितना सिसकूँ , तडपूँ
मगर तुम्हारी रूह पर
दर्द की हल्की सी लकीर भी गंवारा नहीं ………
यूँ भी अश्कों की धार पर चल
मंज़िल तक पहुँचने के लिये दहकते पलाश पार करने होते हैं
क्योंकि
बन्दगी के भी अपने आयाम हुआ करते हैं

12 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद गंभीर रचना , कहने को बहुत कुछ है शब्दों में बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. बन्धन तो बन्धन होता है, सुखमय कैसे हो सकता है..

    जवाब देंहटाएं
  3. संभल कर आना... तुम्हारी ज़रा सी पीर भी सह्य नहीं. भावुक रचना, शुभकामनाएँ.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब ... उनको एक चोट भी गवारा नहीं ..
    प्रेम की इन्तेहा ...

    जवाब देंहटाएं
  5. इश्क का नया अंदाज...सुंदर कविता..

    जवाब देंहटाएं
  6. गहन भाव लिए, कुछ ताने देती हुई , कुछ पीड़ा का अह्शाश करती हुई हमेशा की तरह एक और सार्थक रचना

    जवाब देंहटाएं

अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया