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बुधवार, 16 अप्रैल 2014

देह के परे भी

स्त्रियाँ जीती हैं सम्पूर्ण सत्य 
अपनी उपस्थिति के साथ 
सिर्फ़ चौके चूल्हे तक ही 
नही है उनका आवास 
सुलझा लिए हैं उसने जीवन के गणित 
नहीं छोड़ती अब पदचिन्ह परछाइयों के 
जो सपनो की किवड़ियां खटखटाएं 
करती हैं विमर्श खुद से 
अपनी उपस्थिति से 
और भर लेती हैं 
रीतेपन के हर घड़े को 
अपनी सम्पूर्णता से 
अपनी उपस्थिति के अहसास से 
इसलिए नहीं रीतती अब एक स्त्री उनमे से 
भ्रम पैदा करने वाली स्थितियों से 
बचना जानती हैं 
देह के गणित पहचानती हैं 
छटपटाहट के नीले सिक्कों पर तोलती हैं 
वो अपने विश्वास और जब पा लेती हैं खुद का भास 
तब करती हैं सम्पूर्ण समर्पण 
तब लिखती हैं इक नया इतिहास 
आज स्त्रियाँ नहीं रह गयी हैं 
बस एक परिहास , उपहास, जीवन का त्रास 

क्योंकि जानती हैं 
इस बार उड़ान महज पिंजरे की वापसी तक नहीं है 

सभी वर्जनाओं को नकारते हुए 
देह के परे भी है अब  उनका एक आकाश 

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (17-04-2014) को "गिरिडीह लोकसभा में रविकर पीठासीन पदाधिकारी-चर्चा मंच 1584 में अद्यतन लिंक पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. bharat me to kam se kam esa koi vyakti nahi hoga jo apni maa,bahan ki ijjat ko lutava kar jinda rahana chahata ho. mahilao ke sath hone vale anyay me jyada tar mahilaye hi bhagidar hoti hai. isaka matalab mera ye nahi ki purus nirdosh hai magar mahilao ka isame sahayog to bahut galat hai jo nahi hona chahiye.

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  3. सभी वर्जनाओं को नकारते हुए
    देह के परे भी है अब उनका एक आकाश ..बहुत सुंदर और सत्‍य लि‍खा है आपने

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन मुस्कुराते रहिए... फ़टफ़टिया बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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