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शनिवार, 19 अप्रैल 2014

प्रेम एक अराधना

रात की लहरों पर चढती उतरती कोई अरदास 
प्रेम तो मानो तेरे मेरे होठों की कोई अबूझी प्यास 

दिन की नर्तन करती परछाइयों का कोई शहर 
प्रेम तो मानो तेरे मेरे प्रेम की कोई भटकी लहर 

भीगी रुत का कोई अनकहा गुनगुना अहसास 
प्रेम तो मानो आषाढ़ में बसंत का आभास 

रूप रंग से परे किसी खुदा का दीदार करता कोई दरवेश 
प्रेम तो मानो किसी मस्जिद से आती सुबह की पहली अजान 

जैसे खुश्बू को मुट्ठी में बाँधने की कोई जिद 
प्रेम तो मानो बच्चे की चाँद को पकड़ने की कोशिश 

रेशम के तागों से बुना इक ख्याल का कोई भरोसा 
प्रेम तो मानो तेरे मेरे अरमानों का कोई बोसा 

जलती आग की परछाइयों में हंसने का सुरूर 
प्रेम तो मानो तेरी मेरी मोहब्बत का कोई गुरूर 

इक साँस से निकलती आस की कोई आवाज़ 
प्रेम तो मानो सप्त सुरों पर बजता कोई साज 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ख़ूबसूरत भावपूर्ण प्रस्तुति...

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  2. प्रेम की निभिन्न परिभाषा अपने में समेंटे हुए..
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    इसे साझा करने के लिए आभार।

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-04-2014) को ""वायदों की गंध तो फैली हुई है दूर तक" (चर्चा मंच-1590) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. जैसे खुश्बू को मुट्ठी में बाँधने की कोई जिद
    प्रेम तो मानो बच्चे की चाँद को पकड़ने की कोशिश ...
    जिद्द तो दोनों ही हैं पूरी नशी होनी पर फिर भी दिल कहन मानता है ...

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