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मंगलवार, 23 सितंबर 2014

ज़िन्दगी के पहले जश्न की तरह

जब शब्दों और विचारों का 
तालमेल टूटने लगे 
भावों पर ग्रहण लगने लगे
और अन्दर तू्फ़ान उठने लगे
भयंकर चक्रवात चल रहा हो
अंधड में खुद का वजूद भी
ना मिल रहा हो 
सिर्फ़ हवाओं का शोर मच रहा हो
सन्नाटे चीख रहे हों
 ज़ुबान पर ताले लगे हों
और रूह का कतरा कतरा खामोश हो 
तब कोई कैसे जीये ……बताना ज़रा 

क्योंकि
एक अरसा हुआ 
जारी है मौन का रुदन………मुझमें मेरे गलते , आखिरी साँस लेते वजूद तक 

कोई तो बताये 
अब तडप के भुने चनों पर 
कौन सी चटनी डालूँ 
जो चटकारा लगा सकूँ ………ज़िन्दगी का आखिरी जश्न मना सकूँ?

क्योंकि सुना है 
मौन का रुदन जब होता है 
बस वहीं सफ़र का अंत होता है 
और मैं मनाना चाहती हूँ आखिरी जश्न को 
ज़िन्दगी के पहले जश्न की तरह 
ज़िन्दगी की पहली सुगबुगाहट की तरह
ज़िन्दगी की पहली उजास की तरह 

क्या दे पाऊँगी मौन के रुदन को उसका मूर्त रूप
क्या लगा पाऊँगी कहकहे अपनी किलकारियों के 
क्या लिख पाऊँगी एक नया ग्रंथ मौन के रुदन पर 
उसका प्रथम और अन्तिम प्रयास बन कर
मौन के रुदन का एक शाहकार बनाकर

भविष्य के गर्त में हैं अभी परछाइयाँ
और मैं खेल रही हूँ गीटियाँ वक्त से 
शायद पकड सकूँ कोई गीटी 
और आकार पा जाये रुदन मौन होने से पहले........

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

क्या कहूँ तुम्हें

चाशनी से चिपका कर होठों को 
परिचित और अपरिचित के मध्य 
खींची रेखा से लगे तुम 

अजनबियत का यूँ तारी होना 
खिसका गया एक ईंट और 
हिल गयी नींव 
विश्वास की 
अपनत्व की 

ये कैसी दुरुहता मध्य पसरी थी 
जहाँ न दोस्ती थी न दुश्मनी 
न जमीन थी न आस्मां 

बस इक हवा बीच में पसरी कर रही थी ध्वस्त दोनों ध्रुवों को 
मानो खुश्क समुन्दर पर बाँध बनाना चाहता हो कोई 

ज़ुबाँ की तल्खी से बेहतर था मौन का संवाद ....... है न 
क्या कहूँ तुम्हें ……… दोस्त , हमदम या अजनबी ?

कुछ रिश्तों का कोई गणित नहीं होता 
और हर गणित का कोई रिश्ता हो ही .......  जरूरी तो नहीं 

रविवार, 7 सितंबर 2014

कोई महबूब होता तो


कोई महबूब होता 
तो झटकती जुल्फों से 
गिरती बूंदों को सहेज लेता 

कोई महबूब होता 
तो आँखों में ठहरे 
सागर को घूँट भर पी लेता 

कोई महबूब होता 
तो होठों पर रुकी बातों की 
मुकम्मल इबादत कर लेता 

कोई महबूब होता 
तो अदाओं की शोखियों से 
एक नगमा बुन लेता 

कोई महबूब होता 
तो दर्द की जकड़नों से 
मोहब्बत की रूह आज़ाद कर देता 

कोई महबूब होता 
तो रेशम के पायदानों पर 
गुलाब बिछा सिज़दे किया करता 

कोई महबूब होता 
तो चौखट पर खड़ा हो 
मोहब्बत के मुकम्मल होने तक आमीन किया करता

कोई महबूब होता 
तो चेनाब के पानी से 
मोहब्बत के घड़े भरा करता 

दर्द के गुबार हों 
ज़ख्मों के मेले 
ग़मों के शहरों में 
नहीं लगा करते मह्बूबों के मेले 
ये जानते हुए भी 
जाने क्यों रूह बावस्ता हुए जाती है 
इक अदद महबूब की ख्वाहिश में सुलगे जाती है 
उफ़ ………… मोहब्बत 
क्यों ठहर जाती है तेरी चाहत 
अधूरी प्यास के अधूरे तर्पण सी  
कोई महबूब होता तक ही ……