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गुरुवार, 20 मार्च 2014

चुभते दिन चुभती रातें

जहाँ न धूप निकलती है उन गलियों में भी ज़िन्दगी पलती है ………#geetashree  बिंदिया के मार्च अंक में ( उस गली में सूरज नहीं निकलता ) ने झकझोर कर रख दिया , मन कल से बहुत व्यथित हो गया तो बस ये ही उदगार निकले :

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

कैसे भोर ने ताप बढाया
कैसे साँझ ने जी तडपाया
युग के युग बीत गये
किससे कहे बिरहा की बातें

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

प्रेम कली मुस्कायी जब भी
आस की बाती गहरायी तब ही
इक रात की दुल्हन बनकर
उम्र भर की चोट पायी तब ही

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

यूँ न प्रीत ठगनी ठगे किसी को
यूँ न प्रेम अगन लगे किसी को
जहाँ भोर भी आने से डरती हो
उन गलियों न ले जाये किसी को

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

8 टिप्‍पणियां:

  1. पीड़ा के भाव में गहरी उतराती पंक्तियाँ।

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.03.2014) को "उपवन लगे रिझाने" (चर्चा अंक-1558)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  3. बियोगी मन की पीर..सुन्दर चितरण..

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  4. वि‍योगी मन कुछ और सोच नहीं पाता...बहुत खूब..

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  5. बहुत ही सुंदर अलंकृत कृति संयोजन किया हैं । , आदरणीय को धन्यवाद व स्वागत हैं मेरे लिंक पे -
    नवीन प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ ) - { Inspiring stories part - 2 }
    बीता प्रकाशन -: होली गीत - { रंगों का महत्व }

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  6. जिन गलियों में धूप नहीं निकलती कितना दुखद होता होगा वहाँ का जीवन...मार्मिक रचना

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अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया