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शनिवार, 31 जुलाई 2010

ज़िन्दगी का हिसाब -किताब

ज़िन्दगी के 
हिस्से होते रहे
टुकड़ों में 
बँटती रही 
बच्चे की
किलकारियों सा
कब गुजर 
गया बचपन 
और एक हिस्सा  
ज़िन्दगी का
ना जाने 
किन ख्वाबों में
खो गया
मोहब्बत ,कटुता 
भेदभाव,वैमनस्यता
अपना- पराया 
तेरे- मेरे 
की भेंट 
दूजा हिस्सा 
चढ़ गया
कब आकर 
पुष्प को
चट्टान 
बना गया
पता ही ना चला
आखिरी हिस्सा 
ज़िन्दगी का
ज़िन्दगी भर के 
जमा -घटा 
गुना -भाग 
में निकल गया
यूँ ज़िन्दगी 
टुकड़ों में
गुजर गयीं
कुछ ना हाथ लगा 
और फिर अचानक
मौसम बदल गया
इक अनंत
सफ़र की ओर
मुसाफिर चल दिया 

24 टिप्‍पणियां:

  1. आपने इस रचना में इंसान के जन्म से लेकर अंतिम सफर तक का चित्रित वर्णन कर दिया ......बहुत खूब .

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  2. सच में बचपन कब गुज़र गया पता ही नहीं चला.... पर अन्दर का बच्चा अभी तक ज़िंदा है...

    बहुत अच्छी लगी येह्कविता... दिल को छू गई...

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  3. सुन्दरता से बखाना जिन्दगीनामा..बढ़िया.

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  4. ज़िन्दगी तो यूँ ही रेत की तरह फिसलती है, एक प्यार का पौधा लगाओ- एहसासों के फल वक़्त को रोकेंगे

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  5. bahut sundar vichaar vandana ji .. jeevan ke safar ko aapne acchi tarah se darshaya hai .
    meri badhayi sweekar kijiye

    aapka abhar

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  6. सचमुच true emotions hain...
    बहुत बढ़िया लिखती हैं आप...बधाई....

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  7. इस टुकड़ों वाली जिन्दगी को समग्रता से जीना ही जीवन है.

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  8. जीवन यात्रा को बखूबी लिखा है...सुन्दर रचना

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  9. इक अनंत
    सफ़र की ओर
    मुसाफिर चल दिया
    --
    सत्य से साक्षात्कार कराती
    सारगर्भित रचना के लिए बधाई!

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  10. बचपन से कितना बटता जाता है जीवन का ध्यान विभिन्न सम्बन्धों में, कुछ घटना व जुड़ना पता ही नहीं चलता है।

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  11. हिसाब-किताब की काफी पक्की लगती हैं ।
    वैसे, अच्छी कविता है !

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  12. इस सहज, सरल मगर जटिल कविता की अंतर्ध्‍वानियां देर तक और दूर तक हमारे मन मस्तिष्‍क में गूंजती रहती है । जीवन के बुनियादी मुद्दों पर केंद्रीत यह कविता हमें विचलित तो करती ही है, यह सोचने के लिए बाध्‍य भी करती है कि अपने आसपास की जिंदगी से सरोकार रखने वाली इन स्थितियों के प्रति हम इतने भयावह रूप में असंवेदनशील और निलिपित क्‍यों हैं ?

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  13. जीवन के सत्य को उजागर करती हुई रचना!
    इस रचना को प्रत्येक व्यक्ति अपने
    जीवन का हिस्सा बना ले तो
    मानव जीवन सार्थक हो जाये।

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  14. आखिरी हिस्सा
    ज़िन्दगी का
    ज़िन्दगी भर के
    जमा -घटा
    गुना -भाग
    में निकल गया
    यूँ ज़िन्दगी
    टुकड़ों में
    गुजर गयीं
    कुछ ना हाथ लगा


    saheeh kahaa --zindagi ki ek sachchi tasveer..
    khoobsurat..

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  15. छोटे छोटे लफ़्ज़ों में ज़िन्दगी का पूरा फलसफा बयां कर दिया आपने...ये हुनर आप ही कर सकती हैं..बेहतरीन...
    नीरज

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  16. मनुष्य जीवन की यही सच्चाई है!...बहुत सुंदर रचना!

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  17. aap bahut achcha likhti hai vandana ji.....aapke blog me kafi dino bad aayi hun... padhkar bahut achcha laga.

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  18. जीवन का लेखा जोखा लिख दिया आपने इस रचना में ... पर फिर भी चलना तो नियति है इंसान की .........

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