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मंगलवार, 29 नवंबर 2011

जहाँ बाड खेत को खुद है खाती


ये जग झूठा
नाता झूठा
खुद का भी
आपा है झूठा
फिर सत्य माने किसको

मन बंजारा
भटका फिरता
कोई ना यहाँ
अपना दिखता
फिर अपना बनाए किसको

कैसी मची है
आपाधापी
कोई नहीं
किसी का साथी
सब मुख देखे की लीला है
फिर दुखडा सुनायें किसको



जहाँ बाड खेत को
खुद है खाती
लुटेरों के हाथ में
तिजोरी की चाबी
वहाँ किससे बचाएं किसको 

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

यूँ ही नहीं कोई मौत के कुएं में सिर पर कफ़न बाँधे उतरता है

दोस्तों
 ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा आयोजित प्रतियोगिता " चित्र से काव्य तक" में मेरी इस कविता को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है जिसका लिंक निम्न है जहाँ तीनो विजेताओं की रचनायें लगी हैं .........http://openbooksonline.com/group/pop/forum/topic/show?id=5170231%3ATopic%3A169440&xg_source=मशग





यूँ ही नहीं कोई मौत के कुएं में सिर पर कफ़न बाँधे उतरता है



ये रोज पैंतरे बदलती ज़िन्दगी
कभी मौत के गले लगती ज़िन्दगी
हर पल करवट बदलती है
कभी साँझ की दस्तक
तो कभी सुबह की ओस सी
कभी जेठ की दोपहरी सी तपती
तो कभी सावन की फुहारों सी पड़ती
ना जाने कितने रंग दिखाती है
और हम रोज इसके हाथों में
कठपुतली बन 
एक नयी जंग के लिए तैयार होते 
संभावनाओं की खेती उपजाते
एक नए द्रव्य का परिमाण तय करते
उम्मीदों के बीजों को बोते 
ज़िन्दगी से लड़ने को 
और हर बाजी जीतने को कटिबद्ध होते
कोशिश करते हैं 
ज़िन्दगी को चुनौती देने की
ये जानते हुए कि 
अगला पल आएगा भी या नहीं
हम सभी मौत के कुएं में 
धीमे -धीमे रफ़्तार पकड़ते हुए 
कब दौड़ने लगते हैं 
एक अंधे सफ़र की ओर
पता भी नहीं चलता
मगर मौत कब जीती है
और ज़िन्दगी कब हारी है
ये जंग तो हर युग में जारी है
फिर चाहे मौत के कुएं में
कोई कितनी भी रफ़्तार से
मोटर साइकिल चला ले
खतरों से खेलना और मौत से जीतना
ज़िन्दगी को बखूबी आ ही जाता है
इंसान जीने का ढंग सीख ही जाता है
तब मौत भी उसकी जीत पर
मुस्काती है , हाथ मिलाती है
जीने के जज्बे को सलाम ठोकती है 
जब उसका भी स्वागत कोई
ज़िन्दगी से बढ़कर करता है
ना ज़िन्दगी से डरता है
ना मौत को रुसवा करता है 
हाँ , ये जज्बा तो सिर्फ 
किसी कर्मठ में ही बसता है 
तब मौत को भी अपने होने पर
फक्र होता है ..........
हाँ , आज किसी जांबाज़ से मिली 
जिसने ना केवल ज़िन्दगी को भरपूर जिया
बल्कि मौत का भी उसी जोशीले अंदाज़ से
स्वागत किया
समान तुला में दोनों को तोला 
 मगर
कभी ना गिला - शिकवा किया 
जानता है वो इस हकीकत को 
यूँ ही नहीं कोई मौत के कुएं में
सिर पर कफ़न बाँधे उतरता है
क्यूँकि तैराक ही सागर पार किया करते हैं 

जो ज़िन्दगी और मौत दोनो से
हँसकर गले मिलते हैं

बुधवार, 23 नवंबर 2011

हर अमावस दिवाली का संकेत नहीं होती ..........


हैलो ....हाउ आर यू
जब कोई पूछता है
दिल पर एक घूँसा सा लगता है
ना जाने कितनी उधेड्बुनो
और परेशानियों से घिरे हम 
हँस कर जवाब देते हैं 
फाईन .........
क्या सच में फाइन होते हैं 
सामने वाला तो जान ही नहीं पाता
फाइन कहते वक्त भी
एक अजीब सी मनः स्थिति से
गुजरते हम 
पता नहीं उसे या खुद को 
भ्रम दिए जाते हैं 
हम सपनो की दुनिया में जीने वाले
कब हकीकत से नज़र चुराने लगते हैं
कब खुद को भ्रमजाल में उलझाने लगते हैं
कब खुद से भागने लगते हैं 
पता ही नहीं चलता
या शायद पता होता भी है
पर खुद को भरमाने के लिए भी तो
एक बहाना जरूरी होता है ना
अब क्या जरूरी है ........अपने साथ
दूसरे को भी दुखी किया जाए
या अपने गम हर किसी के साथ बांटे जायें
क्यूँकि ..........पता है ना
ये ऐसी चीज नहीं जो बाँटने से बढ़ जाये 
फिर क्या रहा औचित्य 
फाइन कहने का
क्या कह देने भर से 
सब फाइन हो जाता है क्या?
हर अमावस दिवाली का संकेत नहीं होती ..........

सोमवार, 21 नवंबर 2011

है प्रेम जगत में सार और कुछ सार नहीं

दोस्तों
आज बिंदु जी का बहुत चर्चित भजन लगा रही हूँ . इसकी दो पंक्तियाँ मैंने आदरणीय भोलाराम जी के ब्लॉग पोस्ट पर लगायी थीं तो उनकी तरफ से फरमाइश आई की पूरी पढवाइये तो सोचा आप सबको भी पढवानी चाहिए हो सकता है आप में से काफी लोगों ने पढ़ी हो ...........तो एक बार और सही.








है प्रेम जगत  में सार और कुछ सार नहीं
तू कर ले प्रभु से प्यार और कुछ प्यार नहीं
कहा घनश्याम ने उधो से वृन्दावन जरा जाना
वहाँ की गोपियों को ज्ञान का कुछ तत्व समझाना
विरह  की वेदना में वे सदा बेचैन रहती हैं
तडप कर आह भर कर और रो रोकर ये कहती हैं
है प्रेम जगत में सार...................................

कहा उधो ने हँसकर मैं अभी जाता हूँ वृन्दावन
ज़रा देखूं कि कैसा है कठिन अनुराग का बँधन
है कैसी गोपियाँ जो ज्ञान बल को कम बताती हैं
निरर्थक लोक  लीला का यही गुणगान गाती हैं
है प्रेम जगत में सार...................................

चले मथुरा से जब कुछ दूर वृन्दावन निकट आया
वहीँ से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया
उलझ कर वस्त्र में कांटे लगे उधो को समझाने
तुम्हारा ज्ञान  पर्दा फाड़ देंगे प्रेम दीवाने
है प्रेम जगत में सार...................................

विटप झुक कर ये कहते थे इधर आओ इधर आओ 
पपीहा कह रहा था पी कहाँ यह भी तो बतलाओ
नदी यमुना की  धारा शब्द हरि हरि का सुनाती थी
भ्रमर गुंजार से भी ये मधुर आवाज़ आती थी
है प्रेम जगत में सार......................................

गरज पहुंचे वहाँ था गोपियों का जिस जगह माडल
वहाँ थीं शांत पृथ्वी वायु धीमी थी निर्मल
सहस्त्रों गोपियों के मध्य में श्री राधिका रानी
सभी के मुख से रह रह कर निकलती थी यही वाणी 
है प्रेम जगत में सार.....................................

कहा  उधों ने यह बढ़कर कि मैं मथुरा से आया हूँ
सुनाता हूँ संदेसा श्याम का जो साथ लाया हूँ 
कि जब यह  आत्मसत्ता ही अलख निर्गुण कहाती  है
तो फिर क्यों मोह वश होकर वृथा यह गान गाती  है
है प्रेम जगत में सार.....................................

कह श्री राधिका ने तुम संदेसा खूब लाये हो
मगर ये याद रक्खों प्रेम की  नगरी में आये हो
संभालो योग की  पूँजी ना हाथों से  निकल जाए
कहीं विरहाग्नि में यह ज्ञान की  पोथी ना जल जाए
है प्रेम जगत में सार.................................

अगर निर्गुण हैं हम तुम कौन कहता है खबर किसकी?
अलख हम तुम हैं तो किस किस को लखती है नज़र किसकी 
जो हो अद्वैत के कायल तो फिर क्यों द्वैत लेते हो
अरे खुद ब्रह्म होकर ब्रह्म को उपदेश देते हो
है प्रेम जगत में सार...............................

अभी तुम खुद नहीं समझे कि किसको योग कहते हैं
सुनो इस तौर योगी द्वैत में अद्वैत रहते हैं 
उधर मोहन बने राधा  , वियोगिन की  जुदाई में
इधर राधा बनी है श्याम . मोहन की  जुदाई में
है प्रेम जगत में सार...................................

सुना जब प्रेम का अद्वैत उधो की  खुली आँखें
पड़ी थी ज्ञान मद की  धूल जिनमे वह धुली आंखें
हुआ रोमांच तन में बिंदु आँखों से निकल आया
गिरे श्री राधिका पग पर कहा गुरु मन्त्र यह पाया
है प्रेम जगत में सार...................................

बुधवार, 16 नवंबर 2011

क्रांति के बीज यूँ ही नहीं पोषित होते हैं

जिसने भी लीक से हटकर लिखा
परम्पराओं मान्यताओं को तोडा
पहले तो उसका दोहन ही हुआ
हर पग पर वो तिरस्कृत ही हुआ
उसके दृष्टिकोण को ना कभी समझा गया
नहीं जानना चाहा क्यूँ वो ऐसा करता है
क्यूँ नहीं मानता वो किसी अनदेखे वजूद को
क्यूँ करता है वो विद्रोह 
परम्पराओं का
धार्मिक ग्रंथों का
या सामाजिक मान्यताओं का
कौन सा कीड़ा कुलबुला रहा है
उसके ज़ेहन में
किस बिच्छू के दंश से 
वो पीड़ित है 
कौन सी सामाजिक कुरीति 
से वो त्रस्त है
किस आडम्बर ने उसका 
व्यक्तित्व बदला
किस ढोंग ने उसे 
प्रतिकार को विवश किया
यूँ ही कोई नहीं उठाता 
तलवार हाथ में
यूँ नहीं करता कोई वार 
किसी पर
यूँ ही नहीं चलती कलम 
किसी के विरोध में
यूँ ही प्रतिशोध नहीं 
सुलगता किसी भी ह्रदय में
ये समाज  में 
रीतियों के नाम पर 
होते ढकोसलों ने ही
उसे बनाया विद्रोही 
आखिर कब तक 
मूक दर्शक बन
भावनाओं का बलात्कार होने दे
आखिर कब तक नहीं वो
खोखली वर्जनाओं को तोड़े
जिसे देखा नहीं
जिसे जाना नहीं
कैसे उसके अस्तित्व को स्वीकारे
और यदि स्वीकार भी ले
तो क्या जरूरी है जैसा कहा गया है
वैसा मान भी ले
उसे अपने विवेक की तराजू पर ना तोले 
कैसे रूढ़िवादी कुरीतियों के नाम पर
समाज को , उसके अंगों को 
होम होने दे
किसी को तो जागना होगा
किसी को तो विष पीना होगा
यूँ ही कोई शंकर नहीं बनता
किसी को तो कलम उठानी होगी
फिर चाहे वार तलवार से भी गहरा क्यूँ ना हो
समय की मांग बनना होगा
हर वर्जना को बदलना होगा
आज के परिवेश को समझना होगा
चाहे इसके लिए उसे
खुद को ही क्यूँ ना भस्मीभूत करना पड़े
क्यूँ ना विद्रोह की आग लगानी पड़े
क्यूँ ना एक बीज बोना पड़े
जन चेतना , जन जाग्रति का 
ताकि आने वाली पीढियां ना
रूढ़ियों का शिकार बने
बेशक आज उसके शब्दों को 
कोई ना समझे
बेशक आज ना उसे कोई 
मान मिले
क्यूँकि जानता है वो
जाने के बाद ही दुनिया याद करती है
और उसके लिखे के 
अपने अपने अर्थ गढ़ती है
नयी नयी समीक्षाएं होती हैं
नए दृष्टिकोण उभरते हैं
क्रांति के बीज यूँ ही नहीं पोषित होते हैं
मिटकर ही इतिहास बना करते हैं 

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

सुना था होता है इक बचपन




सुना था होता है इक बचपन
जिसमे होते कुछ मस्ती के पल
पर हमने ना जाना ऐसा बचपन
कहीं ना पाया वैसा बचपन
जिसमे खेल खिलौने होते
जिसमे ख्वाब सलोने होते
यहाँ तो रात की रोटी के जुगाड़ में
दिन भर कूड़ा बीना करते हैं
तब जाकर कहीं एक वक्त की
रोटी नसीब हुआ करती है
जब किसी बच्चे को
पिता की ऊंगली पकड़
स्कूल जाते देखा करते हैं
हम भी ऐसे दृश्यों को
तरसा करते हैं
जब पार्कों में बच्चों को
कभी कबड्डी तो कभी क्रिकेट
तो कभी छिड़ी छिक्का 
खेलते देखा करते हैं
हमारे  अरमान भी उस 
पल को जीने के 
ख्वाब रचाया करते हैं

मगर जब अपनी तरफ देखा करते हैं
असलियत से वाकिफ हो जाते हैं
सब सपने सिर्फ सपने ही रह जाते हैं
कभी भिखारियों के 
हत्थे चढ़ जाते हैं
वो जबरन भीख मंगाते हैं
हमें अपंग बनाते हैं 
तो कभी धनाभाव में 
स्कूल से नाम कटाते हैं
और बचपन में ही 
ढाबों पर बर्तन धोते हैं
तो कभी गाड़ियों के शीशे 
साफ़ करते हैं
तो कभी लालबत्ती पर
सामान बेचा करते हैं

यूँ हम बचपन बचाओ 
मुहीम की धज्जियाँ उडाया करते हैं 
बाल श्रम के नारों को 
किनारा दिखाया करते हैं
पेट की आग के आगे
कुछ ना दिखाई देता है
बस उस पल तो सिर्फ
हकीकत से आँख लड़ाते हैं 
और किस्मत से लड़- लड़ जाते हैं
बचपन क्या होता है
कभी ये ना जान पाते हैं
जिम्मेदारियों के बोझ तले
बचपन को लाँघ 
कब प्रौढ़ बन जाते हैं
ये तो उम्र ढलने पर ही 
हम जान पाते हैं
सुलगती लकड़ियों की आँच पर
बचपन को भून कर खा जाते हैं
पर बचपन क्या होता है
ये ना कभी जान पाते हैं 

सोमवार, 7 नवंबर 2011

कभी किया है त्रिवेणी मे स्नान?

मोहब्बत इक कर्ज़ है ऐसा जो चुकाये बने ना उठाये बने

तेरी याद इक दर्द है ऐसा जो दबाये बने ना 
दिखाये बने


कभी किया है त्रिवेणी मे स्नान?







यादों के संगम पर अब नही मिलते दोनो वक्त

त्रिवेणी के लिये दर्द का दरिया उधार कौन दे





ना कुछ चाहा ना कुछ मांगा 

ना जाने क्यूँ

फिर भी रिश्ता चटक गया







रिश्तों को भी जलना आ गया

शायद हमे भी जीना आ गया






दर्द भी होता है

टीस भी उठ्ती है

मगर अश्क नही बहते



जल बिन मछली का तडपना देखा है कभी?







दीप तले ही अंधेरा था

शायद मेरा नीड ही अकेला था


अब उम्र की बाती कौन बनाये?








जीवन की कश्ती मे अश्कों का पानी

हाय रे! क्या से क्या हुई ज़िन्दगानी


बचपन के दर्पण मे ज़िन्दगी नही मिलती











दोस्तों 


पिछली पोस्ट में आप सब वो पोस्ट नहीं पढ़ पाए क्यूंकि लिंक नहीं खुल 


रहा था मगर मेरे यहाँ खुल रहा था कोई बात नहीं मैंने अब वो आलेख 


वहीँ लगा दिया है आप सब चाहें तो वहां उसे पढ़ सकते हैं ........बस 


पत्रिका में थोडा एडिट हुआ है .



गुरुवार, 3 नवंबर 2011

ये आपकी धरोहर है

गर्भनाल का ६० वाँ अंक खास है ..........ये प्रवासी भारतियों का हिंदी के प्रति योगदान को समर्पित अंक है और मेरे पास जिन जिन ब्लोगर्स और लेखकों की जानकारी थी उनके लिंक मैंने देने की कोशिश की है इस अंक में ............फिर भी कुछ लिंक्स रह गए होंगे मैं जानती हूँ और उन सबके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ क्योंकि इस वक्त जो मेरे पास थे वो सब लगा दिए मगर आगामी अंकों में बाकी के ब्लोगर्स के लिंक्स भी आते रहेंगे. 


ये है गर्भनाल का लिंक आप यहाँ जाकर पेज 40-41 पर अपने ब्लोग लिंक देख सकते हैं---------






https://mail-attachment.googleusercontent.com/attachment?ui=2&ik=83ac09a125&view=att&th=13358aaf09594b16&attid=0.1&disp=inline&realattid=bbdfbf62e7b1362_0.1&safe=1&zw&saduie=AG9B_P-sqdOOtE1oq5h2pgM3cTYR&sadet=1320471128799&sads=MwkmelH3314zBWRIc6FiDAZlbgg


काफी शिकायतें आ रही हैं की ये लिंक खुल नहीं रहा इसलिए वो आलेख यहाँ लगा दिया है जिसे आप सब यहाँ पढ़ सकते हैं.लेकिन पत्रिका में एडिट करके लगाया गया है.



दोस्तों
 हम सब भारतीय हैं और अपनी भारतीयता को किसी भी देश काल  में बांध कर नहीं रख पाते और यही हमारी भारतीय होने की सबसे बड़ी निशानी है . चाहे वतन में रहें या वतन से दूर मगर कभी भी वतन की मिटटी से खुद को जुदा नहीं कर पाते . वतन की मिटटी की खुशबू हमारी धडकनों में हमारी साँसों में ऐसे महकती है कि उसकी खुशबू से हर जगह की मिटटी महकने लगती है और जहाँ भी हम भारतीय जाते हैं वहीँ अपना वतन बना लेते हैं .
आज हम भारतीय विदेशों में भी अपनी संस्कृति का परचम लहराते हैं और अपने देश की आन बान  और शान को ज़िन्दा रखते हैं . यहाँ तक कि विदेशों में भी हम भारतीयों ने अपनी भाषा को ना केवल ज़िन्दा रखा बल्कि उसकी एक पहचान भी बनाई जो हर भारतीय के लिए गौरव की बात है .

आज हर बात कहने के लिए एक माध्यम की जरूरत पड़ती है और जब ब्लॉग बनाने की सुविधा मिली तो हम भारतीय उसमें  भी पीछे नहीं रहे बल्कि हमारे भारतीय भाई - बहनों ने विदेशों में रहते हुए भी अपने ब्लोगों के माध्यम से अपने दिल के हाल हम तक पहुंचाए और ना केवल पहुंचाए बल्कि ब्लोगिंग को एक मुकाम दिया और यहाँ तक पहुँचाया कि आज पत्रिकाओं इत्यादि में उनका जिक्र किया जाता है और ये अपने आप में कोई कम उपलब्धि नहीं है.

आज इसी सन्दर्भ में हम कुछ हिंदी के खास प्रवासी चिट्ठाकारों का जिक्र करते हैं जिन्होंने विदेशों में रहते हुए भी हिंदी को उच्च स्थान दिलाया.

सबसे पहले जिक्र करते हैं हम राज भाटिया जी के ब्लॉग का ............राज भाटिया जी के यूँ तो पांच ब्लॉग हैं ..........ब्लॉग परिवार , नन्हे मुन्ने, छोटी छोटी बातें , मुझे शिकायत है और पराया देश .
इन सबमे मुझे शिकायत है http://sikayaat.blogspot.com/
पर वो देश के हालत से चिंतित दिखाई देते हैं और जो भी अनहोनी घटना घटती है उसमे उसी प्रकार दुखी होते हैं जैसे हम यहाँ रहकर दुखी होते हैं और उसी तरह आम जन की तरह शिकायत करते हैं समाज से ,व्यवस्था से , न्यायपालिका से और जनता से भी.

http://chotichotibaate.blogspot.com/ छोटी छोटी बातें ब्लॉग पर जीवन की उलझनों और आप पास की हकीकत से वाकिफ कराते हैं.
पराया देश ब्लॉग पर http://parayadesh.blogspot.com/2011/08/blog-post.हटमल ज़िन्दगी ने जो दिया उसे साझा करते है ...........कैसे पराये देश में जीने की जद्दोजहद के बीच एक मुकाम बनाया है और फिर एक नया आयाम बनाते हैं यही उनकी जीवटता का परिचायक है.

अब बात करते हैं ब्लोगिंग के पुरोधा समीर लाल जी की जिनसे कोई भी ब्लोगर अपरिचित नहीं . जिन्होंने अपने स्नेहिल व्यवहार से हर ब्लोगर के दिल में एक खास जगह बनाई है . उनके ब्लॉग का नाम है उड़नतश्तरी http://udantashtari.blogspot.कॉम
समीर जी का नजरिया देश दुनिया को देखने का ज़रा हटकर है . ज़िन्दगी के रोजमर्रा के व्यवहार को वो अपने आलेखों , कविताओं में इस तरह पिरोते हैं कि पढने वाला एक सांस में पढता चला जाता है अपने साथ -साथ उसे एक ऐसे जहाँ की सैर करा देते हैं जिससे बाहर आने में व्यक्ति को काफी वक्त लगता है. सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखते बल्कि कभी उसमे दर्द होता है तो कभी आम इन्सान की तकलीफों का जिक्र तो कभी किसी पशु पक्षी की वेदना और कभी राजनितिक उठा पटक पर कोई व्यंग्य जो एक सन्देश भी साथ देता है यही लेखक का असली दायित्व होता है कि वो जो भी लिखे उससे एक बेहतर सन्देश भी जाये समाज में और वो इसमें खरे उतर  रहे हैं. विदेश में रहते हुए भी आज भी अपनी मिटटी से ऐसे जुड़े हैं कि किसी को लगता ही नहीं कि वो यहाँ अपने देश में नहीं रहते . शायद यही सच्चाई है जिसने उन्हें आम से खास बनाया है . अपने देश और हिंदी के प्रति उनका योगदान अतुलनीय है.

अब हम बात करेंगे एक ऐसी शख्सियत की जिन्होंने  मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में गोल्ड मेडल प्राप्त किया और कुछ वक्त टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोडूसर काम  किया मगर घर गृहस्थी में फँसकर कुछ समय के लिए स्वयं को इन सबसे दूर किया वो हैं हमारी सबकी प्रिय ब्लोगर  शिखा जी जो अपने ब्लॉग स्पंदन 

http://shikhakriti.blogspot.कॉ
के माध्यम से अपनी ज़िन्दगी के पन्नो से तो रु-ब-रु तो करवाती ही हैं साथ ही  वहाँ की ज़िन्दगी , वहाँ के लोगों के रहन सहन , संस्कृति और सभ्यता से भी परिचित करती  हैं .
जब से ब्लोगिंग शुरू की है तब से स्वयं को इसके प्रति समर्पित किया है और इस सन्दर्भ में वहाँ ना जाने कितनी गोष्ठियों और कार्यक्रमों में भाग लेकर अपने देश और हिंदी का नाम रौशन किया है . यू के क्षेत्रीय हिंदी सम्मलेन में भाग लेकर विदेश में देश का ना केवल नाम रौशन किया बल्कि विदेशी जमीन पर हिंदी का परचम भी लहराया . ये हिंदी के प्रति उनका मोह ही है जो रुसी , अंग्रेजी भाषाएँ जानते हुए भी वो हिंदी में अपने काम को अंजाम देती हैं और हिंदी के प्रति पूर्णतः समर्पित हैं.

अब बात करते हैं लन्दन में रहने वाले युवा भारतीय दीपक मशाल की जो रहते बेशक लन्दन में हैं लेकिन हिंदुस्तान को दिल में लिए घूमते हैं. यहाँ का दर्द , यहाँ की तक
 लीफें उन्हें उसी तरह कचोटती हैं जैसे वो वहाँ नहीं यहीं हिंदुस्तान में रह रहे हों और उन मुसीबतों को झेल रहे हों ..........हर विषय पर उनका लेखन उनके ब्लॉग मसि कागद http://swarnimpal.blogspot.com/ पर 
देखने को मिलेगा . लघुकथाएं, आलेख , कवितायेँ , ग़ज़ल हर विधा में महारत हासिल है और हर बार कुछ ना कुछ अपने लेखन में दे जाते हैं जिसे सोचने को इन्सान मजबूर हो जाता है ...........यही उनकी लेखन के प्रति कटिबद्धता है . अपनी एक आम इन्सान की पहचान की दौड़ में खुद को उस मृग की तरह मानते हैं जो कस्तूरी के पीछे भाग रहा है मगर अपने अन्दर ही नहीं ढूँढ पा रहा शायद उनका यही नजरिया उन्हें भीड़ में सबसे अलग बनाता है और विदेश धरती पर रहकर भी हिंदुस्तान और हिंदी से खुद को जोड़े रखना आज के युवा के देशप्रेम को भी दर्शाता है.

अब बात करते हैं एक ऐसी महान शख्सियत की जिन्होंने देश विदेश में अपने लेखन का डंका बजाया  है . 
वेब-प्रोद्यौगिकी (हिन्दी)
"हिन्दी भारत"
वागर्थ
"बालसभा"
पीढियाँ
स्वर-चित्रदीर्घा
चिट्ठा चर्चा
Beyond The Second Sex (स्त्रीविमर्श)
इन सारे ब्लोग्स की स्वामिनी कविता वाचकनवी किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं . अपने ब्लॉग
http://vaagartha.blogspot.com/ पर देशी बनाम विदेशी मुद्दे  तो कभी सामाजिक ढांचों की वकालत करती कविता जी की सोच बहुत ही परिपक्व है साथ ही लेखन के माध्यम से जन -जाग्रति करती उनकी शख्सियत उन्हें सबसे अलग मुकाम दिलाती है फिर चाहे बात स्त्री विमर्श की हो या नयी टैक्नोलोजी की , बच्चों से सम्बंधित हो या हिंदी की ..........हर जगह कविता जी जिस  प्रतिबद्धता से लिखती हैं और अपने भावों को व्यक्ति करती हैं उसका हर कोई कायल हो जाता है. विदेश में रहकर भी भारतीय संस्कृति और अपनी भाषा के प्रति गहरा लगाव ही उन्हें यू के रहते हुए भी अपने देश से जोड़े रखता है. उनके लिए कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा है.

ऑस्ट्रेलिया सिडनी में रहने वाली डॉक्टर भावना कुंवर जी अपने ब्लॉग दिल के दरमियाँ
http://dilkedarmiyan.blogspot.com/2011/08/blog-post_6955.html
पर अपने भावो को इतनी शालीनता से व्यक्त करती हैं कि अहसास ही नहीं होता कि किसी और के भाव हैं यूँ लगता है जैसे खुद को ही पढ़ रहे हों . भावना जी को हाइकू  लिखने में महारत हासिल है . गवाक्ष ,उदंती पत्रिका , वस्त्र मंत्रालय भारत सरकार की पत्रिका में प्रकाशित हाइकू  ने उन्हें एक अलग ही पहचान दी और दिसम्बर २०१० में इंदौर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका वीना  मासिक में उनके २८ हाइकुओं को स्थान मिला जो अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है. विदेश में रहते हुए भी अपने देश में पहचान बनाना साथ ही विदेशी धरती पर अपनी भारतीय भाषा और संस्कृति को बनाये रखना किसी उपलब्धि से कम नहीं. इसके अलावा सिडनी में आयोजित होने वाले हिंदी के कार्यक्रमों में भाग लेकर हिंदी को बल प्रदान करती हैं जिसका सबसे बेहतर उदाहरण हिंदी की प्रथम पत्रिका हिंदी गौरव के संपादन में महत्तवपूर्ण योगदान दिया साथ ही अपनी कविताओं और आलेखों के माध्यम से भी हिंदी को बढ़ावा दिया .विभिन्न कवि सम्मेलाओं में कविता पाठ करके हिंदी का परचम लहरा रही है जिस पर किसी भी भारतीय को गर्व होगा . विदेशी धरती पर अपने देश का , अपनी संस्कृति और भाषा का परचम लहराना कोई कम उपलब्धि नहीं होती.

विदेशी धरती पर हिंदी का परचम फ़ैलाने वालों में एक नाम राकेश खंडेलवाल जी का भी है जो अमेरिका में रहते हैं मगर दिल में सिर्फ हिंदुस्तान ही बसता है. अपने ब्लॉग गीत कलश 
http://geetkalash.blogspot.com/ और गीतकार कि कलम  
http://geetkarkeekalam.blogspot.com/ पर अपने ह्रदय के भावों को इस तरह उंडेला है जैसे कोई शिल्पकार मूर्ति गढ़ रहा हो. राकेश जी अपना परिचय चाँद लफ़्ज़ों में देते हैं कुछ इस तरह ------"कौन हूँ मैं ये मैं भी नहीं जानता आईने का कोई अक्स बतलायेगा असलियत क्या मेरी, मैं नहीं मानता"
शायद इसीलिए यदि उन्हें जानना है तो उनके ब्लोग्स को पढना पड़ेगा और उनकी सोच , विचारधारा से प्रभावित हुए बिना कोई नहीं रहेगा.एक उत्कृष्ट लेखन का नमूना है राकेश जी के ब्लॉग और उनकी पोस्ट .शायद यही हम भारतीयों के लिए सम्मान की बात है कि हम कहीं भी रहें मगर अपनी जड़ों से कभी अलग नहीं हो पाते.


दुबई में रहने वाले दिगंबर नसवा जी किसी परिचय के मोहताज नहीं . ब्लॉगजगत में तो उनकी एक खास पहचान है .दिगंबर जी अपने ब्लॉग स्वप्न मेरे 
http://swapnmere.blogspot.com/ पर वो सब ही लिखते हैं जो वो अपनी जगती आँखों से देखते हैं क्यूँकि जगती आँखों से स्वप्न देखना ही उनकी फितरत है.
उनकी कवितायेँ स्वयं बोलती हैं . अपनी कविता आह्वान में उन्होंने जिस तरह शब्दों के माध्यम से आह्वान किया है वो अद्वितीय है .........इसकी एक बानगी देखिये .......
इससे पहले की /दीमक शब्दों को चाट जाए /शब्दों से गिर के अर्थ /आत्महत्या कर लें /इन्हें बाहर लाओ /चमकती धूप दिखाओ /युग परिवर्तन की हवा चलाओ /शब्दों को ओज़स्वी आवाज़ में बदल डालो /क्रान्ति का इंधन बना दो  .
भारतीय कहीं भी रहें अपनी आवाज़ बुलंद करना जानते हैं और कैसे जन- जन तक सन्देश पहुँचाना है उसमे कुशल हस्त हैं .
उनके लेखन में एक तरफ तो  आज के  जीवन के दंश दृष्टिगोचर होते हैं तो दूसरी तरफ एक छटपटाहट उन्हें झकझोरती है खुद को पाने की, कुछ कर गुजरने की, किसी को पाने की.............राजनीति से लेकर आम इन्सान की चिंताओं से लबरेज़ उनका ब्लॉग हर कसौटी पर खरा उतरता है . जीवन की जीवन्तता और विध्वंस सभी का दर्शन होता है.
ब्लॉगजगत के अलावा भी बहुत ही हस्तियाँ हैं जो अपने अपने तरीके से हिंदी के प्रचार और प्रसार के लिए योगदान दे रही हैं . उनमे से हैं रेखा मैत्र जी जो बनारस में जन्मी . हिंदी साहित्य में एम् ए किया और कई कोर्स करने के बाद विधिवत कविता लेखन शुरू किया . फ़िलहाल अमेरिका में हिंदी भाषा के प्रचार के लिए साहित्यिक संस्था उन्मेष के साथ जुडी  हैं और अपने कई कविता संग्रह निकाल  चुकी हैं .

उमेश तम्बी जी का जन्म हुआ तो नागपुर में था मगर इस वक्त वो सोफ्टवेयर के क्षेत्र  में अमेरिका में कार्यरत हैं और बचपन से ही हिंदी के प्रति प्रेम होने की वजह से हास्य और व्यंग्य को अपने लेखन का आधार बनाया साथ ही कुछ समय से अपने अनुभव और विचारों को भी साहित्य और काव्य का रूप देना शुरू किया है.

शब्द्सुधा ब्लॉग http://shabdsudha.blogspot.com/  की रचयिता डॉक्टर सुधा ॐ धींगरा किसी परिचय की मोहताज नहीं .यू के में रहने वाली सुधा जी का व्यक्तित्व आज के प्रवासी भारतीयों ही नहीं इस देश में रहने वाले भारतीयों के लिए भी गौरव की बात है. कौन सा ऐसा क्षेत्र है जिसमे उन्होंने हाथ ना आजमाया हो और अपनी पहचान ना बनाई हो . सुधा जी दूरदर्शन , आकाशवाणी और रंगमंच की एक जानी मानी हस्ती रही हैं साथ ही एक विख्यात पत्रकार भी जो उन्हें सबसे अलग बनाता है. उन्होंने अपने काव्य संग्रह, कहानी संग्रह ना केवल हिंदी बल्कि पंजाबी में भी निकाले और साथ ही अनुवाद भी किया . अब उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका हिंदी चेतना की संपादक हैं और हिंदी विकास मंडल की सचिव . अमेरिका में आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों की संयोजक का उत्तरदायित्व भी बखूबी निभाती हैं."प्रथम" शिक्षण संस्थान  की कार्यकारिणी सदस्य एवं उत्पीडित नारियों की सहायक संस्था "विभूति" की सलाहकार भी हैं . ऐसी महान विभूति के लिए तो शब्द भी कम पड़ जाते हैं .
अब एक ऐसे शख्स से मिलवाती हूँ जो कहानी, ग़ज़ल और कविताओं में महारत रखते हैं . पंजाब में जन्मे और यू के में रहने वाले हमारे सबके दिल अजीज श्री प्राण शर्मा जी ने यूँ तो कोई ब्लॉग नहीं बनाया है मगर अपने लेखन से हिंदी के उत्थान  और विकास में लगे हैं. यू. के. से निकलने वाली पत्रिका पुरवाई में ग़ज़ल कैसे लिखी जाये उसके गुर लिखे हैं साथ ही नए शायरों को सिखाई हैं ग़ज़ल की बारीकियां. उनकी रचनायें ना केवल देश और विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं और अख़बारों में छपती हैं बल्कि वो स्वयं सम्मेलनों , मुशायरों , आकाशवाणी के कार्यक्रमों और साहित्यिक गोष्ठियों में जाते हैं बल्कि कई पुरस्कार भी प्राप्त कर चुके हैं .

लुधियाना में जन्मे वेद मित्र जी ने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा हिंदी के प्रचार- प्रसार में ही लगाया है. १९८० से लन्दन में हिंदी पढ़ा रहे हैं और इनके पढाये छात्र उच्च शिखा प्राप्त कर रहे हैं. विदेशियों और भारतीयों को हिंदी सिखाने का पूरा पाठ्यक्रम इन्होने लिखा है जिसके तीन संस्करण छप चुके हैं और इनकी लिखी पुस्तक ४० से अधिक शिक्षण संस्थानों में प्रयुक्त की जा रही है . ब्रिटेन की महारानी ने २००७ में शिक्षा के लिए दिए जा रहे इनके योगदान के लिए इन्हें सम्मानित भी किया है साथ ही जॉन गिलक्रिस्ट हिंदी सम्मान भी इन्हें प्राप्त हुआ है जो किसी उपलब्धि से कम नहीं. अपना जीवन ही जिसने विदेश में हिंदी के लिए समर्पित कर दिया हो उनके आगे तो सभी नतमस्तक हैं.