दोस्तों
ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा आयोजित प्रतियोगिता " चित्र से काव्य तक" में मेरी इस कविता को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है जिसका लिंक निम्न है जहाँ तीनो विजेताओं की रचनायें लगी हैं .........http://openbooksonline.com/group/pop/forum/topic/show?id=5170231%3ATopic%3A169440&xg_source=मशग
यूँ ही नहीं कोई मौत के कुएं में सिर पर कफ़न बाँधे उतरता है
ये रोज पैंतरे बदलती ज़िन्दगी
कभी मौत के गले लगती ज़िन्दगी
हर पल करवट बदलती है
कभी साँझ की दस्तक
तो कभी सुबह की ओस सी
कभी जेठ की दोपहरी सी तपती
तो कभी सावन की फुहारों सी पड़ती
ना जाने कितने रंग दिखाती है
और हम रोज इसके हाथों में
कठपुतली बन
एक नयी जंग के लिए तैयार होते
संभावनाओं की खेती उपजाते
एक नए द्रव्य का परिमाण तय करते
उम्मीदों के बीजों को बोते
ज़िन्दगी से लड़ने को
और हर बाजी जीतने को कटिबद्ध होते
कोशिश करते हैं
ज़िन्दगी को चुनौती देने की
ये जानते हुए कि
अगला पल आएगा भी या नहीं
हम सभी मौत के कुएं में
धीमे -धीमे रफ़्तार पकड़ते हुए
कब दौड़ने लगते हैं
एक अंधे सफ़र की ओर
पता भी नहीं चलता
मगर मौत कब जीती है
और ज़िन्दगी कब हारी है
ये जंग तो हर युग में जारी है
फिर चाहे मौत के कुएं में
कोई कितनी भी रफ़्तार से
मोटर साइकिल चला ले
खतरों से खेलना और मौत से जीतना
ज़िन्दगी को बखूबी आ ही जाता है
इंसान जीने का ढंग सीख ही जाता है
तब मौत भी उसकी जीत पर
मुस्काती है , हाथ मिलाती है
जीने के जज्बे को सलाम ठोकती है
जब उसका भी स्वागत कोई
ज़िन्दगी से बढ़कर करता है
ना ज़िन्दगी से डरता है
ना मौत को रुसवा करता है
हाँ , ये जज्बा तो सिर्फ
किसी कर्मठ में ही बसता है
तब मौत को भी अपने होने पर
फक्र होता है ..........
हाँ , आज किसी जांबाज़ से मिली
जिसने ना केवल ज़िन्दगी को भरपूर जिया
बल्कि मौत का भी उसी जोशीले अंदाज़ से
स्वागत किया
समान तुला में दोनों को तोला
मगर
कभी ना गिला - शिकवा किया
जानता है वो इस हकीकत को
यूँ ही नहीं कोई मौत के कुएं में
सिर पर कफ़न बाँधे उतरता है
क्यूँकि तैराक ही सागर पार किया करते हैं
जो ज़िन्दगी और मौत दोनो से
हँसकर गले मिलते हैं