एक और दिन की शुरुआत ... कुछ ख़ास नहीं .......वो ही उलझा उलझा , अपनी वीरानियों में सिमटा हुआ , एक ठंडी चाय के अहसासों से लबरेज़ , किसी वृक्ष से गिरी पीली पत्तियों सा बिखरा ..........जाने कौन सा फलसफा लिखेगा ........ जहाँ कोई मुलाकात का वादा नहीं किसी से , जहाँ इंतज़ार के ठहरे हुए पलों में नहीं है कोई कहानी .....बस एक ख़ामोशी है जिसके पीछे जाने कौन सी वजह है दरयाफ्त करने को आजकल नहीं मिला करती खुद से भी ...........बेगानापन तारी है मानो जुबाँ पर कसैलापन चढ़ा हो और मिश्री भी कडवी लग रही हो ..........सुनो , क्या कर सकोगे व्याख्या आखिर मैं चाहती क्या हूँ क्योंकि एक अरसा हुआ भटकते बियाबानों में मगर ?
ए .......... अब इसे मोहब्बत नाम न देना भरम टूट चुके हैं मेरे ........उससे इतर कोई नयी इबारत लिख सको या बयां कर सको तो खट्टी इमली सा स्वाद भी काफी होगा जीने के लिए ......... यूँ भी पतझड़ से झड़ते दिन गवाह हैं कल फिर एक आज बन खड़ा होगा यही प्रश्न लिए .......... क्या कर सकोगे अब इबादत बिना बुत के सजदे में झुकने की रस्म अदा कर हलाल होने की .........क्योंकि जरूरी तो नहीं दिन बदलने से बदल जाएँ तकदीरें भी .....वक्त की स्याही हमेशा काली ही हुआ करती है ..........और तुम वक्त से आगे हो और मैं न आगे न पीछे ............मध्य मार्ग मेरी मजबूरी है ........उदासियों के शहर में खामोशियों का अनशन सिखा रहा है मुझे दिन को कतरा कतरा बेजुबान करना मानो गिद्धों ने नोंच डाला हो जिस्म सारा ......अब और क्या दिन बीतने और रीतने के फलसफे सुनाऊँ तुम्हें ..........समझ सको तो समझ लेना यहाँ सुबह बासी फूल सी मुरझाई हुआ करती है और शामें किसी शोक संतप्त परिवार सी गुजरा करती हैं ........और तुम कहते हो दिन की हथेली पर लिखूं तुम्हारा नाम तो खिल उठेंगे सारे शहर के गुलाब ........आह !
ए .......... अब इसे मोहब्बत नाम न देना भरम टूट चुके हैं मेरे ........उससे इतर कोई नयी इबारत लिख सको या बयां कर सको तो खट्टी इमली सा स्वाद भी काफी होगा जीने के लिए ......... यूँ भी पतझड़ से झड़ते दिन गवाह हैं कल फिर एक आज बन खड़ा होगा यही प्रश्न लिए .......... क्या कर सकोगे अब इबादत बिना बुत के सजदे में झुकने की रस्म अदा कर हलाल होने की .........क्योंकि जरूरी तो नहीं दिन बदलने से बदल जाएँ तकदीरें भी .....वक्त की स्याही हमेशा काली ही हुआ करती है ..........और तुम वक्त से आगे हो और मैं न आगे न पीछे ............मध्य मार्ग मेरी मजबूरी है ........उदासियों के शहर में खामोशियों का अनशन सिखा रहा है मुझे दिन को कतरा कतरा बेजुबान करना मानो गिद्धों ने नोंच डाला हो जिस्म सारा ......अब और क्या दिन बीतने और रीतने के फलसफे सुनाऊँ तुम्हें ..........समझ सको तो समझ लेना यहाँ सुबह बासी फूल सी मुरझाई हुआ करती है और शामें किसी शोक संतप्त परिवार सी गुजरा करती हैं ........और तुम कहते हो दिन की हथेली पर लिखूं तुम्हारा नाम तो खिल उठेंगे सारे शहर के गुलाब ........आह !