नेपाल से निकलने वाली पत्रिका ' शब्द संयोजन ' के अक्टूबर २०१५ अंक में प्रकाशित मेरी कविता :
सूख गए हैं स्रोत गोमुख के
तक्षशिलाओं मुहानों पर बैठे हैं दल्ले
भोगवादी प्रवृत्ति ने उपजाई हैं कंटकाकीर्ण फसलें
फिर कैसे संभव है
अंगूर के मौसम में आम उगाना
विपरीतार्थक शब्दों को समुच्चय में बाँधना
रक्ताभ मार्गों में नीलाभ आभा बिखेरना
जब समय के तंतु बिखर चुके हों
पहाड़ों के दुःख पहाड़ से हो गए हों
ग्रह नक्षत्रों की युति
कालसर्प दोष को इंगित कर रही हो
ऐसे समय में
कैसे संभव है
पहाड़ का सीना चीर
दूध की नदिया बहाना
या मौसमों के बदलने से
मनः स्थिति का बदलना
जब चूल्हों की जगह
कहीं पेट की तो
कहीं शरीर की भूख की
लपटें पसरी हों
और सिंक रही हो
मानवता की रोटियां जली फुँकी
हृदय विहीन समय के
नपुंसक समाज में
जीने के शाप से शापित
समाज का कोढ़ है
इंसानियत की बेवा का करुण विलाप
नैराश्य के घनघोर
अंधियारे में घिरे
पुकारते पूर्वजों की चीखें
बंद कानों पर नहीं गिरा करतीं
सिर्फ टंकारें
जो तोड़ती हैं
वो ही सुनाई देती हैं
एक ऐसे समय में
जीने को अभिशप्त मानव
कहाँ से लाये पारसमणि
जो जिला दे
मृत आत्माओं की
संवेदनाओं को
व्यग्र माँ पुनरुत्थान को
कातर निगाहों से
भविष्य की ओर
ताक रही है .......... क्या दिखी तुम्हें ?